बुधवार, 5 दिसंबर 2012

अब तो सच्चाई महरूम है, सच के मन्दिरो से, फूल महरूम हो गये अपनी खुशबू से, इसे पतन की राह न कहे तो क्या कहे, अपने ही महरूम हो गये अपनो से, हर रोज हो खडा सामने आईने के, खुद के अक्श को निहारता, बाद में एक सच जाना, आईने भी महरूम हो गये सच्चाई से, सुनकर झटका लगा उनकी जिन्दगी की दाँस्ता, जो संघर्ष पर लिखते रहे ता-उम्र, खुद महरूम रहे संघर्ष से, हाए। क्या सपने संजोए थे यौवन के, महरूम हो गये अपने यौवन से, गौरव दीक्षित(अपने निजी जीवन पर)

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