रविवार, 12 अप्रैल 2015

• मेरी डायरी का वो आखिरी पन्ना- 4


वो हताश हो चुकी थी और मुझे देखे जा रही थी वो बार बार मुझसे सोरी बोलती रही मगर मैं तो नौटंकी करने में व्यस्त बना रहा |वो फस्ट-एड बोक्स उठा लायी थी मगर में उसे क्या दिखता ...|उसने मुझे सौरी सौरी बोलते हुए गले लगा लिया ..शायद यहाँ से मेरा काम आसान था |मैं उससे लिपट गया और लिप्त रहकर शांत होने का नाटक करने लगा वो मुझे एक प्यारे से छोटे से बच्चे की तरह ट्रीट कर रही थी


मेरे बाबू को क्या हो गया ..... प्लीज दिखाओं न बाबू .... सौरी बाबू ...प्लीज ...
एक बात सच कहूँ उसके मुंह से ये सब सुनने के लिए तो रोज साला हम ये नौटंकी कर सकते है और साला नौटंकी क्या हम तो हकीकत में ही ऊँगली काट सकते थे |उसने बिना देखे मेरी ऊँगली को अपने मुंह में दे लिए |यकीन मानो उस वक़्त मुझे इतना आनदं मिला की मैं चाहता था की साला ये ऊँगली सच में कट जाए और ये मेरी ऊँगली को जिन्दगी भर इसी तरह अपना प्रेम करती रहे | वो डरी हुयी रहकर भी मुझे बस खुश देखना चाहती थी |इसलिए सुकून कभी मेरे एस गाल पर अपने लवों का स्पर्श देती तो कभी वो उस गाल पर\|आय हाय ..... क्या पल थे यार वो सच में आनन्द दे गए ....हकीकत में कहा जाए तो बस मैं उस आनन्द को बयाँ नही कर सकता क्यूंकि मेरे पास उस तरह के शव्दों की भी वहुत ज्यादा कमी है |
मैं शांत हो गया था मगर उसकी नींद गायब हो चुकी थी मैंने मौका देखकर अपने हाथ की ऊँगली पर बेन्देड लगा लिया था वो उस नाटक की तरह फर्जी ही था \मगर कुछ पलों के लिए तो बस बदलाव होना चाहिए था न माहौल में |माहौल भले ही बदल गया हो मगर वो अब भी मुझे सहला रही थी मुझे प्यार कर रही थी एक मासूम सी बच्ची के जैसा व्यवहार कर रही थी वह |उसका यह व्यवहार हमेशा से ही हमें प्रिय रहा है शायद कुछ ज्यादा ही प्रिय तभी तो हम एस व्यवहार को पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो सकते थे |उसने मेरी गर्दन को अपने हाथ पर रख लिया और उस ऊँगली को बड़े प्यार से अपने चेहरे के पास लाकर प्यार से फूंक देती जैसे किसी छोटे बच्चे के चोट लगने पर हम सब करते हैं |उसका ये प्यार दिखावा नही है हकीकत में कहा जाए तो उसकी ये बचकानी हरकतें सच में उसके दिल में भरे हुए अथाह प्यार की बदौलत ही थी |वो खुद भी एक प्यारी से बच्ची ही तो थी एक ऐशी बच्ची जिसका बचपन तो मिट गया मगर यौवन शायद सुधरने लगा था |उसके मन का बच्चा अभी तक बड़ा नही हुआ था क्यूंकि उसे अब तक बड़ा होने का मौका ही नही मिला था |उसके हाथ मेरे बालों को सहला रहे थे ... कभी कभी तो हमें लगता था की हमारी आदते बिलकुल एक जैसी हैं मगर एषा नही था सिर्फ कुछ ही |
मालूम नही कब मैं उसकी हाँथ पर सर रखकर अपने कोटे की नींद पूरी कर बैठा जब मैं जागा तो वो बस मेरे सर से सर सटाकर सो रही थी उसकी उँगलियाँ मेरे बालों में उलझी हुयी थी|मैं काफी वक़्त तक उसका चेहरा निहारता रहा और उसके बाद अपनी दिन चर्या में लग गया |जब मैं सुबह की सैर के बाद बापस लौटकर आया तो देखा सामान पैक हो रहा था |उसने मुझे बताया तो पता चला की घर से पिता जी का काल आया था और उन्होंने दोनों ही लोगों को घर बुलाया है |हमारा सामान तो लग चूका था इसलिए ज्यादा वक़्त नही लगा हमें निकलने में |
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जब हम घर पहुंचे तो हमें मालूम हुआ की मेरी जाने मन का एम्.टेक . के कोर्स का समय शुरू होने बाला था यानि क्लास शुरू होने बाली थी हमें तो कॉलेज का पता ही नही चला था ये सब पिता जी की कारस्तानी थी उन्होंने जानबूझ कर भोपाल का कॉलेज दिलाया था जबकि हम उसे कानपूर के बहार नही भेजना चाहते थे |मगर मुझे याद आया मार्च में कोर्स ???.... बाद में हमें बताया गया की कोर्स तो अभी शुरू नही होना है लेकिन पिताजी को अपने काम के लिए कोई सपोर्टर चाहिए और उसके लिए सोनल उपयुक्त है ... बैसे तो वो मुझे भी ले जा सकते थे मगर मेरी पढाई अभी चल रही थी |
मैं इस फैसले का विरोध नही कर सकता था क्यूंकि ये दादा जी की भी मर्जी थी और न सोनल में इतनी ताकत थी वो इस फैसले के खिलाफ जा सके |आखिर में दो दिन बाद का समय मुकरकर हुआ उनके जाने का बाय ट्रेन का रूट मिला |सारा दिन दादा जी के साथ काम करने में ही बीत गया मौका नही मिला सोनल से बात करने का और मौका मिलता भी कैसे इतना भरा पूरा परिवार था कहीं कोई न कोई तो आ ही जाता था |रात को वो मेरे लिए मेरी दवाएं लेकर आई तो मुझसे रहा नही गया मैंने उससे उस फैसले के बारे में पूँछ ही लिया ...वो बात टाल गयी और चुपचाप चली गयी .... वो नादान ये नही समझ रही थी की उसके चले जाने के बाद आने बाला अधूरापन कोई कभी नही भर सकता है ... आदत हो गयी है मुझे उसकी .... कम से कम दिन में पचास बार उसका नाम मुह पर अनायाश ही आ जाता था ... मेरी हर काम की जरुरत थी वो ...उसके बिना न सिर्फ मैं ही अकेला था बल्कि करीने से सजाया गया हमारा बंगला भी उसके बिना अधुरा ही सा था |
रात अपने जोरों पर आने लगी थी मगर हमें और हमारी तनहाए के लिए तो ये श्राप बन सकती थी क्यूंकि बैसे भी हमें नींद नही आती और उपर से ये तन्हाई कहीं हमें बर्बाद न कर दे | मैं छत पर लेता हुआ बस तारों को गिन रहा था हर गुजरे हुए लम्हे के बारे में सोच रहा था कुछ हसीं ..कुछ खट्टे और कुछ मीठे बस उन्ही को सोच रहा था .... उदास मन था उदासी से घिरा हुआ ...तभी उसमें चमक आ गयी ... मेरी जान ये तमन्ना मेरे पास आ गयी ......|
तुम सो गये क्या ???
नही ......क्यूँ??
कुछ नही बस यूँ ही ....
कोई बात है क्या ....???
नही बस तुमसे मिलने का मन कर रहा था बस इसलिए चली आई .....मन नही लग रहा था |
सिर्फ एक रात में ????.......... और तुम .....
(इतना कहते कहते मेरा गला भर आया था .... इसलिए मैं चुप हो गया )

जी. आर. दीक्षित 
दाऊ जी

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