शुक्रवार, 30 मई 2014

प्रितिविम्व--एक परछाई

प्रितिविम्व--एक परछाई

लब्ज रुक रुक कर आ रहे थे ...गला भरा हुआ था .................आँखों में लालिमा आ गयी .....लगने लगा मानो अब नही तो बस अब आँखों से आंशु टपकेंगे .................पर किस लिए .....एक तरफ मन दिल को हल्का करना चाहता था तो दूसरी तरफ दिल वह्लाना .................किसी से बात करने को दिल करा रहा था मगर सब तरफ बस सूनापन ही था .............किस्से कहते किसके कंधे पर सर टिकता .............................दिल की इजाजत नही थी आशु बहाने की कहीं न कहीं प्रतिष्ठा धूमिल होनें का दर मन में सता रहा था ..............बार बार खांस रहा था पर न जाने गले में क्या अटका हुआ था जो निकलने का नाम ही नही ले रहा था |
आशु बहता तो किस लिए आखिर ये सब खुद का ही तो किया हुआ था ....मेरे खुद का पैदा किया हुआ दर्द जिसे मैं महसूस तो कर रहा था परन्तु व्यक्त नही कर प् रहा था |
कल जब हर कोई मेरे बिरोध में खड़ा होकर ....मेरी अवहेलना करने को तैयार था मेरे फैसलों पर रोक लगाने को आतुर था तब मैं सबको ठेंगा दिखा दिया था जिसके चलते मुझे अपने आप से दूर होना पड़ा .......................................आज उन सबकी वहुत याद आ रही है ...उनसे बात करने का मन कर रहा है...लेकिन उनसे करूँ तो किस मुंह से करूँ ....हाल कहूँ तो कैसे कहूँ /........
मन में एक अनचाहा डर पैदा हो गया................. की पता नही वो मेरा फोन फ्लिक करेंगे भी या नही या फिर बस यूँ ही हम भटकते रहेंगे ....अगर फोन फ्लिक नही किया तो हम क्या करेंगे ??
हमारे पास कौन सा कारन होगा जो हमें रोक सकेगा खैर जलते अंगार पर तो हमें ही चलना है क्यूंकि ये पथ हमारा अपना बनाया हुआ है ................शायद सरकारी ठेकेदारों की तरह जिन्हें अपने बनाये मार्ग पर इतना भरोसा होता है की वो खुद वहां नही जाते और न ही उस मार्ग से आवागमन करते हैं क्यूंकि उन्हें सच पता होता है ....................
मेरा बनाया मार्ग मुझे ........................

दाऊ जी

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