सोमवार, 12 अक्तूबर 2015

रोते हैं अकेले में और हँसते हैं जमाने में,

रोते हैं अकेले में और हँसते हैं जमाने में,
मोती कहाँ बचे हैं, अब अपने खजाने में.

जीने को जिंदगी की नैमत तो बहुत थीं,
हमने गंबाया वक्त बस आने-ओ-जाने में.

सारे जहां में घूम के ढूंढा किये तश्कीन,
हासिल हुआ सकून पंहुच के मैखाने में.

थककर हुए थे चूर लिए पथराई नज़र,
फिर भी न जाने सबबे-देरी तेरे आने में।

जानते हम भी हैं लज़्ज़ते-जुबां बखूबी,
हासिल मगर न कोई शै हमको जमाने में.

नाकाम, ना-उम्मीद अब तो इतना हो गए,
दुआ भी भूल गए हम पंहुच के बुतखाने में.

जिंदगी दर्द का तो अब भी लुत्फ़ ले रही है,
मजा कुछ और हो गया है इसके फ़साने में.

परदे में मरना बेहतर कुछ तो अदब रहेगा,
कोई मज़ा नहीं है नंगा होके जिए जाने में.

मेरी पैरहन का देखो हरेक तार यूं जुदा है,
नाकाम है 'जी ' अब, इनको जोड़ पाने में.

नैमत = बहुमूल्य, तश्कीन = सन्तुष्टि, सबबे-देरी = बिलम्व का कारण, लज़्ज़ते-जुबां = जिभ्या का स्वाद, बुतखाने = मूर्ति-पूजा स्थल/मंदिर, लुत्फ़ = आनन्द, फ़साने किस्से चरचे, अदब = सम्मान, पैरहन = वस्त्र/पेहनाबा।


अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...