बुधवार, 28 अक्तूबर 2015

मौत क्या है? वाकई।

मौत क्या है? वाकई।
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आये दिन सुनता रहता हूँ कि 'हाय मर गया' कह रहा है कोई। कभी कभी दुआ भी ऐसे निकलती है के 'मरता क्यों नही?'
पर सच में जब कोई मर जाता है तो कैसा लगता है ये सोचना भी मुहाल है।
कोई पांच साल पहले, तब भी मैं शाहदरा में ही काम करता था, तब मेरा एक दोस्त था उम्र में मुझसे कोई दो साल बड़ा। वो भी साथ ही कर्मचारी था। एक दिन बोला कि "भाई मैं गांव जा रहा हूँ। तू बता तेरे लिए क्या लाऊ"? ऐसे जब भी कोई पूछता है तो मुझे कुछ मीठा ही सूझता है। मैंने गुड़ की फरमाइश कर दी।
जाते जाते वो बोला "यार मेरी सैंडल नयी है गांव में टूट जायेगी। तू अपनी चप्पल दे दे।" मैंने कहा भी कि टूटी चप्पल क्यों ले जा रहा है पर वो माना नही, और ले गया।
दो दिन बाद मेरा मन हुआ उससे बात करने का तो मैंने उसे फ़ोन किया, फ़ोन उसके भाई ने उठाया।मैंने पूछा - "भैया नमस्ते, विकास कहाँ है, ज़रा बात करा दीजिये।"
वो बड़े ही सरलता से बोल गए - "विकास तो मर गया भाई।"
"अरे क्यों मज़ाक करते हो सुबह सुबह भैया। बात कराओ न।"
पर वो सच में मर गया था। पता चला कि एक बुग्गी के नीचे आ गया और मर गया।
बताओ, आज होता तो पच्चीस का होता। बिना कुछ बोले कहे मर गया। गाँव गया और लौटा ही नही। मैं आज तक उस दिन को नही भूल पाता। खाली बैठा ज्ञान झाड़ता था, मेरा मन करता हअई कि मैं भी उसको बताऊ देख मैं भी ज्ञान बाँटने लगा। पर नही कह सकता। क्योंकि वो तो मर गया।
लोग अक्सर हीरो की तरह कह देते है कि मुझे मरने से डर नही लगता। पर क्या उन्होंने कभी मर के देखा ??
कुछ दोस्त कई बार इतना नाराज़ हो जाते है कि बोलना छोड़ देते है। मेरे साथ भी कुछ ने किया। और दुर्भाग्य वश मुझे भी कुछ दोस्तों के साथ ये सलूक करना पड़ा। वो मुझसे या मैं उनसे इसलिए चुप्पी साध गए क्योंकि हम जानते थे कि हम बोले तो बहुत बुरा बोलेंगे और बहुत सा ज़हर फैलेगा। इसलिए ज़हर दबा ले गए।
लेकिन अगर कहीं कोई अचानक से मर जाये तो न जाने क्यों सिर्फ एक ही बात दिमाग में रह जाती है, "यार मुझे तो कुछ कहना था उससे।" और नही कह पाये।
मौत का अफ़सोस हुआ ये कहने और महसूस करने में ज़मीन आसमान सा फर्क है।
मैं अक्सर किसी के चौथे पांचवे में जाने से कतराता हूँ, क्योंकि मुझसे ये लफ्ज़ चाह कर भी नही बोले जाते - "बहुत अफ़सोस हुआ इनकी या उनकी मौत का।"
पर मैं इतनी रात गए ऐसा टॉपिक क्यों ले बैठा?
बेवजह तो कुछ होता नही।
आज सुबह से ही तबियत कुछ नासाज़ सी है मेरी। पर काम भी ज़रूरी है उसे भी नही छोड़ सकता था। जहाँ जाना था वहाँ गया। पर रास्ते में ट्रैफिक लाइट पर न जाने क्यों ऐसा लगा की सांस रुक गयी हो। मैंने सुना है कि टॉम क्रुज़ साढे छः मिनट तक सांस रोक सकता है पर यकीन जानिए मैं आधा मिनट नही रोक पाता।
और फिर रोकने में और अटकने में फर्क होता है। कोई एक मिनट शायद मेरी सांस नही आई। वैसे तो एक मिनट कुछ भी नही होता पर जब सांस अटकी तब साठ सेकंड कई घण्टे लग रहे थे।
दिन में अँधेरा सा होने लगा। लगने लगा जैसे सब खत्म होने को हो। फिर खुद से ही सवाल किया कि अभी कोई उम्र है भला खत्म होने की?
फिर दस सेकंड को सब कुछ ब्लैक। कोई शोर नही सिर्फ सन्नाटा।
फिर सांस उखड़ी उखड़ी सी निकली।फिर जैसे रेल का इंजन चला हो। फिर कुछ दिखना शुरू हो गया।
फिर ट्रैफिक की आवाज़ कानो में पड़ने लगी।
जो लाल बत्ती अभी हरी होने से पहले एक सौ बीस सेकंड का समय मांग रही थी वो पलक झपकते ही उन्नीस पर पहुँच गयी।
अचानक ये एहसास हुआ कि कितना कुछ दिल में दबा के जाने वाला था मैं? कुछ दोस्तों से, दुश्मनो से, अजनबियों तक से सोचे बैठा था कुछ कहने को। वो सब तो कह ही न पाता।
कितना अफ़सोस होता न मुझको बिना कुछ बोले जाने का? पर मुझे क्यों अफ़सोस होता? मैं तो होता ही नही।
हां शायद उन्हें होता जो कुछ शब्द लिए बैठे थे मेरे लिए पर कह न पाये। उन्हें अफ़सोस होता।
मैं मुझे नही। मैं अब भी नही कह सकता कुछ बाते कुछ लोगो से, शायद वो भी कभी नही कहेंगे।
कुछ बातें सिर्फ अफ़सोस जताने के काम आती है शायद। तब दिल से अफ़सोस निकलता है।
और मुझे भी अफ़सोस होता। बिना सुने मर जाने का। पर अभी उम्मीद हैं और वक़्त भी।
अफ़सोस के लिए।
‪#‎सहर_होनेतक‬
शुभ रात्रि।

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