मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

मुनाफाखोरी के मर्ज की मानसिकता

बीते 1 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का एक ऐतिहासिक फैसला आया। फैसला नोवार्टिस कंपनी के एक पेटेंट आवेदन से जुड़ा हुआ था जिसमें कंपनी चाहती थी कि कैंसर की दवा ग्लीवेक के लिए संपूर्ण अधिकार सुरक्षित हों और कैंसर की जेनेरिक दवाओं पर रोक लगे। सुप्रीम कोर्ट ने कंपनी की यह दलील नहीं मानी। मामला खारिज कर दिया। लेकिन यह एक अकेला ऐसा मामला नहीं है जिसके खारिज हो जाने से दवा कारोबारियों की मुनाफाखोर मानसिकता पर कोई रोक लग पायेगी। ग्लीवेक पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से कैंसर के इस दवा का एक महीने का कोर्स सवा लाख की बजाय दस हजार का हो जाएगा लेकिन मुनाफाखोरी के ऐसे सैकड़ों मामले अभी भी अदालतों में लंबित हैं। एक अनुमान है कि दवा कंपनियां हर साल करीब ढाई हजार करोड़ रूपये की अतिरिक्त मुनाफाखोरी करती हैं जो मरीजों की जेब से जबरन वसूला जाता है।

कोई बीमारी जब जानलेवा हो जाती है तो लोग इलाज के लिए क्या कुछ नहीं दांव पर लगा देते हैं। क्या अमीर क्या गरीब। ऐसे हालात में वे मोलभाव नहीं करते हैं। इस नाजुक स्थिति को भुनाने में दवा उत्पादक कंपनियों ने मोटी कमाई का बेहतरीन अवसर समझ लिया है। सरकारी नियमों को खुलेआम धत्ता बता कर दवा कंपनियां जरूरी दवाइयों की मनमानी कीमत वसूल रही हैं। कंपनियों की इस मनमानी पर सरकार की नकेल नाकाम है। दवा मूल्य नियामक राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने अपने हालिया रिपोर्ट में कहा है कि सिप्ला, डॉ. रेड्डीज लैब्स और रैनबैक्सी जैसी प्रमुख बड़ी दवा कंपनियों ने ग्राहकों से तय मूल्य से ज्यादा में दवाएं बेचीं। रिपोर्ट के अनुसार बेहतरीन उत्पादकों की सूची में शामिल इन कंपनियों ने कई जरूरी दवाओं के लिए गत कुछ वर्षों में ग्राहकों से लगभग 2,362 करोड़ रुपए अधिक वसूले। इसमें से करीब 95 फीसदी रकम से संबंधित मामले विभिन्न राज्यों उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में विचाराधीन हैं। इनमें से कई कंपनियों ने तो जुर्माने के रूप में एक पैसा भी नहीं भरा है। ऐसे मामलों में कंपनियां कानूनी दांव पेंच का सहारा लेकर मामले को लंबित करवा देती हैं। तब तक बाजार में उनकी मनमानी चलती रहती है। जनता की जेब कटती रहती है। कंपनियों की तिजोरी भरती जाती है। इसके बाद भी दवा से मरीज की जान बचे या जाए इसकी गारंटी भी नहीं है।

सरकार एनपीपीए के माध्यम से ही देश में दवाओं का मूल्य निर्धारित करती है। वर्तमान समय में एनपीपीए ने 74 आवश्यक दवाओं के मूल्य निर्धारित कर रखा है। नियम है कि जब दवा की कीमत में बदलाव करना हो तो कंपनियों को एनपीपीए से संपर्क जरूरी है। लेकिन देखा गया है कि कई बार कंपनियां औपचारिक रूप से आवेदन तो करती हैं, पर दवा का मूल्य मनमाने ढंग से बढ़ा देती हैं। निर्धारित मूल्यों की सूचीबद्ध दवाओं से बाहर की दवाओं के कीमतों में बढ़ोत्तरी के लिए भी एनपीपीए से मंजूरी अनिवार्य है। इसमें एनपीए अधिकतम दस प्रतिशत सालाना वृद्धि की ही मंजूरी देता है। लेकिन अनेक दवा कंपनियों ने मनमाने तरीके से दाम बढ़ाये हैं।
दवा कंपनियों के इस मुनाफे की मलाई में दवा विक्रेताओं को भी अच्छा खासा लाभ मिलता है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में कार्यरत एक गैर सरकारी संगठन प्रतिभा जननी सेवा संस्थान की एक रिपोर्ट ने इस बात का खुलासा किया कि दवा कंपनियां केवल अधिक कीमत वसूल की ही अपनी जेब नहीं भरती है, बल्कि वे सरकारी कर बचाने एवं अपने ज्यादा उत्पाद को खापने के लिए खुदरा और थोक दवा विक्रेताओं को भी मुनाफे का खूब अवसर उपलब्ध कराती हैं। जिसके बारे में आम जनता के साथ-साथ सरकार भी बेखबर है।

कंपनियां दवा विक्रेताओं को दवाओं का बोनस देती है। मतलब एक केमिस्ट किसी कंपनी की एक स्ट्रीप खरीदता है तो नियम के हिसाब से उससे एक स्ट्रीप का पैसा लिया जाता हैं लेकिन साथ ही में उसे एक स्ट्रीप पर एक स्ट्रीप फ्री या 10 स्ट्रीप पांच स्ट्रीप फ्री दे दिया जाता है। बिलिंग एक स्ट्रीप की ही होती है। इससे एक ओर सरकार को कर नहीं मिल पाता वहीं दूसरी ओर कंपनियां दवा विक्रेताओं को अच्छा खासा मुनाफा कमाने का मौका दे देती है। वे निष्ठा से उसके उत्पाद को ज्यादा से ज्यादा बेचने की कोशिश करते हैं। दवा विक्रेताओं ने अपना संघ बना रखा है। ये अधिकतम खुदरा मूल्य (एमआरपी) से कम पर दवा नहीं बेचते हैं। ग्राहक की दयनीयता से इनका दिल भी नहीं पसीजता है। दवा कंपनियां के इस खेल का एक बनागी ऐसे समझिए। मैन काइंड कंपनी की निर्मित अनवांटेड किट भी स्त्रीरोग में उपयोग लाया जाता है। इसकी एमआरपी 499 रुपए प्रति किट है। खुदरा विक्रेता को यह थोक रेट में 384.20 रुपए में उपलब्ध होता है। लेकिन कंपनी खुदरा विक्रेताओं को एक किट के रेट में ही 6 किट बिना कीमत लिए मतलब नि:शुल्क देती है। बाजार की भाषा में इसे एक पर 6 क डिल कहा जाता है। इस तरह से खुदरा विक्रे

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