किसी ने गोस्वामीजी से पूछा महाराज सबकी दृष्टि तो आपने बता दी लेकिन अब ये बताईये हमारे भरतजी को कैसा लगा? बोले भरतजी को वे पादुका नहीं लगी, भरतजी को तो ऐसा लगा जैसे साक्षात सीता रामजी ही मिल गये, भगवान ही मिल गये हों।
भगवान से किसी ने पूछा भगवन! जब पादुका आप अपने ही रूप में दे रहे है तो पादुका बन में रख दीजिए और आप अयोध्या पधारिये तब तो कोई अन्तर नहीं पड़ता, भगवान ने कहा कि भाई ऐसा नहीं हो पायेगा, बोले मुझे तो इस रूप में ही बन में पहचानने वाले लोग नहीं है, मैं साक्षात हूँ तब नहीं पहचानते तो पादुका में कैसे पहचान पायेंगे।
ये दृष्टि तो केवल भरत के पास है जो पादुका में भी मेरा दर्शन कर सकता है, इसलिये भगवत दर्शन के लिए तो दृष्टि चाहिए, ह्रदय जब भक्तिपूर्ण होता है तो जगत उसके भगवत स्वरूप हो जाता है, जगत तो भगवान नहीं हैं पर भक्ति के नेत्रों से भगवान स्वरूप दिखता है।
इसलिये वास्तव में मूर्ति में भगवान नहीं हैं लेकिन हमारी दृष्टि का पावित्रय उसमें भी परमात्मा का दर्शन कर लेता है, ये दृष्टि का भाव होता है, यहाँ से अब बड़े भारी मन से सब विदा होते हैं, कोई वापस नहीं जाना चाहता, सबको भगवान ने प्रणाम किया हैं।
प्रभु गुन ग्राम गनत मन माहीं।
सब चुपचाप चले मग जाहीं।।
प्रभु ने बहुत भारी मन से सबको विदा किया, माताओं को पालकी में बिठाया, गुरुदेव को रथ में आरूढ किया, सब नगरवासीयों को भगवान उसी भाव से मिले है, वापिस कोई लौटना नहीं चाहता लेकिन प्रभु की इच्छा, सब चुपचाप चले, मन में भगवान के गुणों व लीलाओं का सुमिरन करते चलें।
कोई किसी से यहाँ बोल नहीं रहा बस उसी में डूबे हैं, भगवान का भाव में दर्शन हो रहा है, भगवान की लीलाओं का मनन और चिन्तन हो रहा है, चित्रकूट के वनाँचल में विचरण हो रहा है, उसी दृश्य में डूबे कोई किसी से बोल नहीं रहा, बोले कैसे?
आनन्द इतना भरा है बोलने की आवश्यकता ही नहीं है, हम तो तीर्थो से वापिस लौटते हैं लगता है जैसे गये थे वैसे ही लौट आये हैं, कोई जीवन में परिवर्तन दिखाई नहीं देता, क्या कारण है कि तीर्थों में हम गये तो न वहाँ हम भगवान की लीलाओं में डूबे ना लौटकर हमने उनका चिन्तन किया।
तीर्थ यात्रा का अर्थ ही यही है कि लौटकर जब आएं तो शरीर तो परिवार के कारोबार में लगेगा पर मन चुपचाप रहेगा और जिन-जिन तीर्थों में भगवान की लीलाओं का हमने श्रवण किया था उन लीलाओं के चिन्तन और मनन में मन डूबा रहेगा, तन घर परिवार के कारोबार में लगा रहेगा लेकिन हम लौटते बाद में हैं तीर्थों की आलोचना पहले शुरू कर देते हैं।
सब अयोध्या आ गये, श्री अयोध्या आकर भरतजी ने भगवान की पादुकाओं को सिंहासन पर विराजमान कर दिया, किसी ने पूछा भरतजी ये पादुकाऐं सिंहासन पर क्यों? भरतजी ने कहा पादुका देकर प्रभु ने ये स्वीकार कर लिया है कि अयोध्या का राजपद उनका ही है, जिसका पद उसी की पादुका।
यदि प्रभु अयोध्या के राजपद को अपना नहीं मानते तो पादुका कैसे दे देते, सिंहासन पर तो मैंने इसलिये रख दिया कि अपनी पादुकाओं पर पग रखकर चलना तो सभ्यता है और दूसरे की पादुकाओं में पग रखकर चलना असभ्यता है, भरतजी के कहने का अर्थ ये है कि शासन करने वाले को सर्वदा सावधान रहना चाहिये।
उसे हमेशा ध्यान रखना चाहिये कि पद और पादुका दोनों भगवान के हैं, हम अगर उसमें अपने को स्थापित करने की कोशिश करेंगे तो मद आये बिना रहेगा ही नहीं, इसी कारण भगवान ने भरतजी के लिये बोला था, "उर आनत तुम्ह पर कुटिलाई, जाई लोक परलोक नसाई" लक्ष्मणजी से संवाद में भी भगवान ने बड़ा स्पष्ट बोला था।
शेष जारी •••••••••••••••
जय श्री रामजी
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