शुक्रवार, 7 मार्च 2014

एक प्यार-अनजानी राहों में

बात उस वक़्त की है जब मैं अपनी ग्रेजुएशन पूरी करके सरकारी नौकरी के लिए पहली बार इम्तिहान देने पटना गया था। मैंने घर से दूरीकी वजह से इस शहर का चुनाव किया था। कहते हैं अक्सर लोग कि प्यार और बुखार बोल कर नहीं चढ़ते हैं। प्यार किस वक़्त और कहाँ किससे हो जाए इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। यह तो पैदा होने के साथ ही इंसान की नियति में ही लिखा होता है।
अपने घर से काफी घंटो के सफ़र के बाद मैं पटना पहुँचा। पता नहीं क्यों मेरा दिल जोर जोर सेधड़क रहा था जैसे किसी अनजान मुसीबत के आने की आहट हो, हवाओं में हल्की सी नमी थी, जुलाई का महीना था, हल्की फ़ुहार सी पड़ रही थी।
यह बारिश मुझे भिगो तो नहीं पाई पर मेरे सोये अरमानों को जगा ज़रूर रही थी। ट्रेन की भीड़ के साथ मैं भी बाहर निकला। इस शहर में मेरे एक अंकल मुझे लेने आने वाले थे, और मैं इस शहर को ज्यादा जानता भी नहीं था।
अंकल ने मुझे एक मंदिर के बाहर इंतज़ार करने को कहा था। स्टेशन के बाहर साथ ही मंदिर था, बहुत भीड़ नहीं थी वहाँ, शायद बारिश का असर था।
जूते बाहर स्टैंड में जमा करके मैं अन्दर गया।
मंदिर की घंटियों की आवाज़ और इस वक़्त का मौसम... पर अचानक मेरा दिल बहुत जोर जोर से धड़कने लगा।
जैसे ही मैं पीछे पल्टा मेरा सीढ़ियों पर से संतुलन बिगड़ गया, लड़खड़ाते हुए नीचे जमीन पर गिर गया। जब होश आया तो मेरे हाथों में एक गुलाबी दुपट्टा था। शायद गिरते वक़्त गलती से मेरे हाथ में आ गया होगा। तभी एक मीठी सी आवाज़ने मुझे ध्यान से बाहर निकाला, पलट कर जैसे हीदेखा तो बस देखता ही रह गया।
साढ़े पाँच फीट के आस पास होगी, जिस्म जैसे तराशा हुआ कोहिनूर सामने हो ! आँखें ऐसी कि सबआँखों से ही बोल दे, होंठों की जरूरत ही ना हो, होंठ ऐसे कि महाकवि भी अपने साहित्य के सारे रस अपने काव्य में डाल दे तो भी उन होंठों के रस की व्याख्या अधूरी रह जाए।
मैं सब कुछ भूल बैठा, शायद मुझे प्यार हो गया...तभी एक आवाज़ ने मुझे मानो नींद से जगाया।
"यह क्या किया तुमने, मेरा पूरा प्रसाद गिरा दिया !"
तभी मुझे ध्यान आया मैं असल में उसके प्रसादपर ही गिरा हुआ था, मेरी सफ़ेद शर्ट प्रसाद केघी से पारदर्शी हो गई थी। मैं उठने की कोशिश करने लगा पर मेरे पैर में बहुत जोर की चोट लगी थी। जब खुद से उठ ना पाया तो उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया।
यह स्पर्श तो मुर्दों में भी जान डाल दे, फिरइस दर्द की क्या बिसात थी !
मेरे उठने के बाद उसने मेरी टीशर्ट को गौर से देखा, अभी तक उस पर प्रसाद वाले लड्डू के दानेलगे थे. मेरी टीशर्ट पे लम्बोदर का चित्र था, तभी उसे पता नहीं क्यों हंसी आ गई, उसने कहा"लाई थी रामभक्त जी को चढ़ाने, पर लगता है विनायक जी से रहा न गया !"
तभी मेरे मुँह से अचानक निकल गया- शायद लड्डू से ज्यादा लाने वाले हाथ पसंद आ गए हों?
फिर से हंस कर उसने कहा- दर्द ठीक हो गया हो तोलोगों को बुला देती हूँ ! हाथों की तारीफ़ भूल जाओगे।
मैंने कहा- ठीक है, नया हूँ इस शहर में तो अब क़त्ल करो या सीने से लगाओ, यह आपके ऊपर है।
"क्या? क्या कहा तुमने?"
"मतलब मेरी मदद करो या मुझे मेरी हालत पे छोड़दो, यह तुम्हारे ऊपर है।"
"क्या नाम है तुम्हारा?"
मैंने कहा-............, और तुम्हारा?
"...........! कहीं तुम्हें मेरा नाम पहले से तो नहीं पता था?"
"हाँ हाँ, मैंने तो जासूस छोड़ रखे है तुम्हारेपीछे ! अब तक चालीस लड़कियाँ घुमा चुका हूँ ! यहसब गलती से हो गया ! मैंने कोई जानबूझ कर तुम्हारा प्रसाद नहीं गिराया है, फिर भी ज्यादा तकलीफ है तो चलो, दूसरा खरीद देता हूँ!"
"सच्ची? चालीस लड़कियाँ !! तुम सब मिल कर अलीबाबा चालीस चोर खेलते थे क्या? तुम मेरा प्रसाद मुझे दिला दो, मैं तुम्हें टीशर्ट ! हिसाब बराबर !"
"हेलो ! यह टीशर्ट 1200 का है, और वैसे भी मैं इस शहर में नया हूँ, ऐसी टीशर्ट कहाँ मिलेगी, मैं नहीं जानता।"
"तुम्हें क्या लगता है, मैं तुम्हें शॉपिंग कराने जाऊँ फिर डेट पे ले जाऊँ फिर...?"
"फिर क्या, वो भी बोल दे... अगर हिसाब बराबर करना है तो साथ चल कर दूकान बता दे, मैं खुद खरीद लूँगा !"
"ठीक है, पर पहले पूजा !"
मैंने कहा- ठीक है।
फिर प्रसाद खरीद के ले आया और दोनों साथ साथ पूजा कर के प्रसाद चढ़ाया और फिर दोनों बाहर आ गए। फिर दोनों साथ साथ चल दिए, आगे ही महाराजामॉल था, वह मुझे रैंगलर के शोरूम में ले गई और एक ब्लैक टीशर्ट पसंद करके मेरी तरफ देख रही थी।
मैंने कहा- क्या हुआ? यह शौपिंग करने मैं तुम्हारे साथ ही आया हूँ तो जो तुम्हारी पसंदवो फाइनल !
यह कह कर भुगतान किया और वो टीशर्ट पहन के बाहर आ गया।
फिर उसने पूछा- अब कहाँ जाना है?
उससे दूर होने की कल्पना भी मुझे जैसे खाए जा रही थी, दिल फिर से धड़कने लगा, मैंने कहा- कल मेरा इम्तिहान है।
"ओ तो अब किसी होटल में रुकोगे न?"
"हाँ...!" मैं नहीं जानता क्यों मेरे मुँह से जबरदस्ती से शब्द कहाँ से निकल गया।
तभी एक और आघात हुआ.. मेरे अंकल का फ़ोन उसी वक़्त आ गया।
अंकल- कहाँ हो? मैं मंदिर के सामने हूँ।
तभी मैंने उस को कहा- घर से फ़ोन है !
और थोड़ी दूर जाकर बात करने लगा। मैंने अंकल से कहा- मैं अपने दोस्त के साथ उसके फ्लैट परआगया हूँ, कल उसका भी एग्जाम है तो तैयारी अच्छी हो जाएगी।
अंकल- ठीक है, तो पहले बता देते ! मैं कल तुम्हारा घर पर इंतज़ार करूँगा।
अब मैंने राहत की सांस ली। उसके पास गया और पूछा- यहाँ एवरेज होटल कहाँ पे मिलेगा?
निशा मुस्कुराते हुए मेरे तरफ देख के बोली- एक मासूम बच्ची से होटल का पता पूछ रहे हो? वोतो तुम्हें पता होगा... चालीस लड़कियों के इकलौते बॉयफ्रेंड !!
"हाँ जी, वैसे मेरी गर्लफ्रेंड्स को मुझे शहर से बाहर ले जाने की जरूरत नहीं पड़ी है आजतक ! आप इस शहर की हो तो बस पूछ लिया !"
"यहीं बगल में होटल वाली गली है, वहीं जाकर पूछ लो, जो सही लगे उसमें रह लेना !"
मैंने कहा- ठीक है, पर कम से कम वहाँ दरवाज़े तकतो चल सकती हो !
अब मुझे सच में उसके दूर जाने का डर सता रहा था।
तभी उसने कहा- ठीक है। पर रूम मिलते ही तुम अपने रास्ते, मैं अपने !
मैंने कहा- ठीक है।
फिर हम दोनों चल दिए, वो होटल वाली गली पास ही थी, काफी भीड़ और अनजान निगाहें हमें घूरे जा रही थी। शाम का वक़्त हो गया था और अँधेरा छाने को बेताब हो रहा था।
तभी एक होटल के बाहर मैं रुक गया, रिसेप्शन देख कर ठीक-ठाक लग रहा था, नाम था उस होटल का होटल सुप्रभा !
नाम कुछ सुना-सुना सा लगा पर मेरा ध्यान उस वक्त होटल के नाम से ज्यादा अपने साथ चल रहे उस हीरे पर था।
रिसेप्शन पर लगी एक तस्वीर देखकर मुझे एक जोर का झटका लगा जोकि लगना बाजिब भी था।कुछ पल के लिए मैं अपना होश को चुका था एक दम शान्त सा...हालात को समझते हुए जल्द ही मैं खुद को सभालते हुए होटल का मुआयना करने का नाटक करने लगा।
उसने पूँछा- क्या हुआ? पसन्द नही आया क्या?
नहीं-नही होटल तो ठीक हैं पर......
पर क्या? उसने पूछाँ।
कुछ नही और इतना कहकर में आगे बढ गया।
उसने ने कहा- ठीक लग रहा है।
मैं रिसेप्शन पर गया और पूछा रूम के के बारे में !
उसने कहा- सिर्फ डबल बेड का आप्शन है, चार्ज छः सौ रुपए, 24 घंटे के लिए।
तभी वो अन्दर आई पूछने लगी- रूम देख लिया क्या? कहीं खटमल तो नहीं है रूम में !
मैंने मना कर दिया ।
मेरा चेहरा उदास हो चला था,उससे बिछडने का बिल्कुल भी मन नही कर रहा था।
उसने मेरा उदास चेहरा देखकर सवाल दागा-क्या हुआ,पैसा नहीं हैं क्या?
नही-नही ऐषी बात नही हैं,मैंने जबाब दिया।
वो बोली-सब समझती हुँ,तुम क्या चाहते हो,एक मिनट रुको अभी आती हुँ।
मैं तो एक छण के लिए डर ही गया था,मुझे लगा कहीं इसे पता तो नही चल गया हैं कि मेरे मन मैं क्या चल रहा है
वो कुछ देर मैं वापस आई और मेरे हाथ में एक हजार रुपये रख दिये,इससे पहले मैं कुछ कहता उसने मैंनेजर को रुम बुक करने का आदेश दे डाला।
मैनेजर ने मुझसे पूछा- यह साथ है क्या?
मैंने उसे रोकते हुए कहा- नहीं यार, बस मेरी टूर गाइड है, यही यहाँ तक लाई है, इसका कमीशन इसको दे देना।उसने ने तभी एक जोरदार मुक्का मारा मेरे पीठपर !वो मुक्का मेरी पीठ पर ज्यों ही पडा मुझे उसके हाथ का स्पर्ष पुन: हो गया।दिल कर रहा था फिर से कुछ हरकत करुँ और एक बार मुझे वो अहसास मिल जायें।
मेरा चेहरा और उदास हो चला था।उसने फिर सवाल दागा-क्या बात हैं तुम उदास क्युँ हो गये?
कुछ नही-मैनें जबाब दिया।
उसने बोला- कुछ तो है बताओ या बताओ?
तो मैने मस्ती में कह दिया-बात दरअसल ये है कि मैं हुँ अकेला और रुम हैं डबल वैड....
वो मुझे खा जाने बाली नजरो से घूरने लगी,
मुझे लगा शायद इसे बुरा लगा हैं तो मैं बोला-सॉरी अगर बुरा लगा हो तो,परन्तु आप जो समझ रहीं है वो मेरा कतई उद्देश्य नही था।
उसने उसी टोन मैं जबाब दिया-चालीस लडकियों के इकलौते व्यॉयफ्रैंड।
जी कहिए...
उन्ही चालीस में से किसी को बुला लीजिए और हा यदि तुम सोच रहे हो कि में आपकी 41वी बनूँगी तो ये थुम्हारी वहुत बडी भूल हैं।
अरे यार!वो तो मैंने झूठ कहाँ था बस योहीं निकल गया था मुँह से मैंने जबाब दिया।
अच्छा तो तुम झूठ भी बोलते हो,पर मैं कैसे यकीन करुँ कि तुम अभी झूठ बोल रहे हो या पहले झूठे थे-उसने एक ही साँस में सब कह दिया।
क्या हम इस टॉपिक को यहीं बन्द कर सकते हैं-मैनें उससे पूँछा।
वो चुप हो गई और में वेटर के आने का इंतजार करने लगा।
वो बोली अच्छा तो में चलती हुँ,और बगैर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये वो बहार निकल गई।मुझे तो एक सदमा सा लग गया था उसके जाने से मैं चुपचाप पानी की वोतल निकालकर अपने दिलो-दिमाग पर काबू करने की एक नाकामयाब कोशिश कर रहा था।मुझे कुछ याद आया ौर में बहार की ओर निकला।बहार कोई नही था में जल्द से उसी गली को भागा जिस गली से हम आये थे,वो मुझे आगे जाती हुई दिखाई दी।
अरे ....... सुनो..-मैने उसे आवाज दी।
उसने पीछे पलटकर देखा और रुक गई।मैंदोडता हुआ उसके पास पहुँचा और बोला-मुझे आपका एक मिनट चाहिए।
उसने जबाब दिया-बोलो?
क्या मैे आपका न. जान सकता हुँ?,मैने उससे सवाल किया।
नही मैं आपको अपना न. नही दे सकती- उसने जबाब दिया।
क्यु?..मैनें पूँछा।
वो बोली-मेरा मोबाईल न. पर्सनल हैं वो में किसी को नही देती।
तो ठीक हैं मत दो अपने घर का पता दे दो।
नही ।
कमसे कम मेल आईडी,फेसबुक आईडी,या टिवटर की आईडी बता दो।
वो वगैर जबाब दिये आगे बढने लगी।
तभी मेरे मोबाईल की घण्टी बज गई,मैंने न. देखा दीदी का फोन था।तब तक वो मेरी आँखो से ओझल हो चुकी थी।................
मैं फोन उठाकर बात करने लगा और उदास मन से होटल की ओर लौट चला।
ईधर मैंनेजर परेशान हो गया था मेरे बिना बताये चले जाने से,मुझे वापस आया देख वो प्रशन्नता से भर गया मैंने उससे चाबी ली और जाकर अपने रुम में लेट गया मन अत्यन्त उदास था इसलिए मैंने भी अपने सेल फ़ोन में जगजीत सिंह की ग़ज़ल लगा दी..
गज़ल भी क्या खूब थी-
कोई फ़रियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे, तूने आँखों से कोई बात कही हो जैसे.
सोने की काफी कोशिश की परन्तु नींद पास न आई,करवटें बदलते बदलते रात गुजारने का कोई ईरादा नही था।मैं उठा और जाकर खिडकी के समीप जाकर वैठ गया।मौषमी हाल के चलते आसमॉ बादलो से घिरा हुआ था,कहीं भी तारे नज़र नही आ रहे थे हा बिजली की चमक एक दम उजाला कर रही थी साथ में बादलो की गडगडाहट सुनाई दे रही थी।मन में उसी के ख्याल उठने लगे बार-बार बस वहीं पल याद आ रहे थे जिनमें उससे पहली हसीन मुलाकात हुई थी।धीरे-धीरे नींद की आगोश में शरीर जाने लगा था,कुछ ही देर में आखें बन्द हो गई और स्वप्नो ने आकर घेर लिया।
वो मेरे पास आई और बोली-कैसे हो?
मैं-हमेशा की तरह वेहतर बनने का प्रयास कर रहा हुँ,तुम्हारे बिना ठीक कैसे हो सकता हुँ।
वो-अच्छा....
मैं-क्या तुमको यकीन नही क्या?
वो-यकीन तो हैं पर क्या करुँ डरती हुँ कहीं तुम झूठे न हो...
मैं-मैं और झूठ ....कभी-कभी।
वो-तुम क्या करते हो,चालीस लडकियों के एकलौते व्यॉयफ्रैन्ड।
मैं-बस यही लोगो के दिल चुराने का
वो जोर से हसने लगी और हसते हुए मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर बोली-पर ये हाथ तो किसी वेरहम इंसान की तरह कठोर हैं।
ये दिल की मार खाने के बाद गुस्से की वजह से हैं मैंने उसे जबाब दिया।
उसने मुझसे पूछाँ-ओह.....क्युँ करते हो तुम ऐषा...।
मैंने भी एक शैर के माध्यम सेअपनी उसे जबाब दिया-
तन्हा हुँ जिन्दगी में,तन्हा सफर करता हुँ,
तन्हा ही जिन्दगी को जीता हुँ,।
उसका चेहरा विस्मय से भर गया और वह बोली- ओह.....तो किसी अच्छी सी लडकी को देख उसको हमसफर बनालो और आइन्दा से ये हरकतें मत करना।
उसकी आवाज में दर्द झलकने लगा था,चेहरा कुछ मायूष हो गया था।
मैंने भी एक शानदार शैर से अपनी बात कहदी-
मिलते कहाँ हैं लोग ऐषै,
जो कद्र करते हो मुहोब्बत की,
भरी है उन से दुनियाँ,
जो धूल समझते हैं इंसानी जज्बातो को जूतियों की।
उसे शायद बुरा लगा था इसलिए उसने तुनककर जबाब दिया-ये मिस्टर सबको एक जैसा मत कहो...।
मैंने भी हालात को समझते हुए अपनी बात कहने में ही भलाई समझी और बोला-चलो नही कहता पर आप ही बताईये,कौन है इस दुनियाँ में जो सच्चे लोगो की कीमत समझता हो,चलो मैं आपसे ही कहता हुँ-क्या आप मेरी हमसफर बनोगी।
उसे जैसे कुछ झटका सा लगा हो वो झट से बोल पडी-देखो मि. मुझे मजाक बिल्कुल पसन्द नही हैं।
मैंने फिर अपने घुटनों पर बैठ कर उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया, कहने लगा या कहो कि बहुत बुरी आवाज़ में गाने लगा...-
चाँद भी देखा, फ़ूल भी देखा, धरती अम्बर सागर
शबनम कोई नहीं है ऐसा तेरा प्यार है जैसा..
मेरी आँखों ने चुना है तुझको दुनिया देख कर !
मैं बस मजाक ही समझ रहा था, तभी एक बिजली सी लहर दौड़ गई मेरे पूरे शरीर में... वो मुझसे लिपटी हुई थी और रो रही थी।
मुझे आज तक समझ नहीं आया है, जब जब मैं मजाक करता हूँ तो लड़कियाँ सीरियस हो जाती है और जब भी मैं सीरियस होता हूँ तो उसे मजाक समझ लेती हैं।
उसका रोता हुआ चेहरा मैं आज तक नहीं भूल पाया हूँ, मेरे होंठ उसके होंठों से मिल गए, शायद नदियों को भी सागर से मिल कर इतनी तृप्ति नहीं मिलती होगी जैसी मुझे मिली थी।
तभी धडाम की आवाज आई और मुँह से एक दर्द भरी आह निकल पडी।आँख खुली तो देखा फर्श पर गिरा हुआ हुँ मेज पर रखा फूलदान जमीन पर बिखरा पडा हुआ था।।मैं उठा और जाकर विस्तर पर लेट गया पर अब फिर नींद नही आ रही थी।काफी कोशिशो के बाद नींद ने ज्यों ही घेरा फिर उसी का स्वप्न....सफेद पोशाक में थी।जैसे कोई अप्सरा दूध सा ऊजला रुप रखे चाँदी से चमकते बदन को सफेद कपडो को ढाकें हुये हो।गालो का गुलाबीपन,औंठो की लालिमा,हिरनी से मतवाले करने बाले नयन,बलखाती कमर....ने मुझे नशेडी बना दिया।वो धीरे-धीरे कदम चाल करती हुई मुझे घूरने लगी और पास आकर खडी हो गई।मुझे अब उसका रुप और उजला-उजला सा लग रहा था,मेरी निगाहें उसके शरीर से हटट ही नहीं रही थी।उसके औंठ जैसे झलकते जाम ,निगाहें जैसे वासना की आँधी को छुपाये हुइ थी।मैं शराबी नही था पर फिर भी वो जाम पीना चाहता था,मैं हवस का पुजारी नही था पर फिर भी उस आँधी को पाना चाहता था।तभी उसकी खनखनाती सी आवाज मेरे कानो तक पहुँची-क्या देख रहे हो........ जी,जैसे नदियों का कल-कल करता स्वर,भँवरो का गुँजन,कोयल की बोली।सबका मिश्रण हो उसमें।शायद शहद और शर्करा का भी।
देख रहा हुँ उस खुदा की कलाकारी को,जिसने पता नही कितने जतन से तुम्हें बनाया होगा,वो कितना रोया होगा उस दिन जिस दिन तुम्हें इस धरती पर भेजा होगा।
वो जोर-जोर से खिल-खिलाकर हस पडी जैसे उसे कोई मजाक लगा हो और बोली- तुम बातें तो दिल लूटने बाली करते हो,क्या कोई लुटेरे हो।
मैं भी तपाक से बोल पडा- हा शायद आपने सही पहचाना पर आज एक लुटेरा तुम्हारे हाथो अपनी,नींद चैन सब लुटाकर जा रहा हैं,आज एक लुटेरो को आपने लूट लिया है पर एक बात दिल से कहता हुँ मैं आपका दिल ही नही बल्कि सच में आपको लूटना चाहता हुँ,तुम्हें अपनाना चाहता हुँ।तुम्हारी आँखो से रोज शाम को मय से बढकर मय को पीना चाहता हुँ,तुम्हारे स्पर्श को अपनाना चाहता हुँ।तुमको अपनाना चाहता हुँ।
वो एक दम शान्त सी हो गई उसका चेहरा भी शान्त हो गया,मैंने आगे बढकर उसके दोनो हाथो को पकड अपनी कमर पर लाया और अपने दोनो हाथो से उसके सिर को पकड़ अपने औंठो को उसके मय से लबालब भरे छलकते प्यालो पर रख दिया.....कुछ पलो के बाद मैंने जब उसके सिर को छोड़ा तो उसके चेहरे पर शर्म की लाली बिखर गई थी,उसके मय से भरे,छलकते और भी नशे में डुबाने बाले हो गये थे।शर्म के मारे गालो का गुलाबीपन लालिमा में बदल गया था।मैं अब उससे और दूर नही रहना चाहता था,मैं आगे बढा और जाकर उससे लिपट गया,उसने भी मुझे अपनी बाहों की आगोश में ले लिया।मुझे अपनी जन्नत मिलने सा अहसास मिलने लगा था.......
आज हो गया रोशन जहाँ,
जब मिलन हो गया
प्यार में तेरे मेरा दिल
प्यार में खो गया......
मन ही मन में ये पंक्तियाँ गुनगुनाने लगा,मेरे हाथ अनायश ही उसके शरीर पर फिसलने लगे,उसने मेरे हाथो को अपने हाथो से रोक कर दूर हटा दिया और दूर जाकर अपने नाजुक हाथो में अपना चेहरा छुपाकर खड़ी हो गई,उसकी साँसे तेज हो गई थी और इधर मेरी भी हालत कुछ वैसी ही थी।मन में न जाने किस प्रकार का भाव उत्पन्न हो गया,गला भर सा गया,आँखो में एक अजीब सा नशा छाने लगा था,मैं ज्योंहि आगे बढा देखा सामने खिडकी से कोई झाँककर हमें देख रहा हैं।मैंने झट से खिडकी बन्द की और आवाज आई...
धडाक....
नींद खुल गई थी देखा चारो तरफ अंधेरा था,लाईट का स्विच दबाया तो कमरा रोशनी से जगमगा गया ध्यान से पूरे कमरे का निरीक्षण किया तो पाया तेज हवा के कारण एक खुली खिडकी की बजह से ही मेरी जिन्दगी के सबसे रंगीन स्वप्न का अन्त हो गया था।ऐषा नही था कि जिन्दगी में ऐषे स्वप्न पहली बार आये थे,आये तो वहुत बार थे मगर उनमें उतनी सच्चाई नही होती थी,उनमें पात्र का आधार और रुप काल्पनिक होता था परन्तु आज के स्वप्न का पात्र सजीव था और कल्पना से परे था।मैंने घडी की ओर देखा 3:29 बज चुके थे,कुछ ही देर में मोबाईल की अलार्म बजने बाली थी मैंने मोबाईल से अलार्म हटाया और उसे स्विच-ऑफ करके तकिये के नीचे रख लिया,मेरे दिल में एक पल को भी नही आया कि आज मेरा एग्जाम है और मुझे उसको देने जाना हैं और यदि में वक्त पर नही पहुँचा तो फिर मेरे पास से ये मौका चला जायेगा।
मन ही मन में एक गीत गुनगुनाने लगा-
तुम्हारी नजरो में हमने देखा .......
अब स्वप्न का स्वरुप बदल गया था,अब एक तरफ भाई जी का प्यार का द्रश्य चल रहा था और दूसरी तरफ उसके साथ का।
मैं अपने भाई को अपने दिल की बात कहता हुँ तो वो प्रशन्नता से भर जाते हैं और वो हमारी शादी के लिए तैयार हो जाते हैं...
इसी तरह के अनेक स्वप्नो के बाद जब नींद खुलती हैं तो देखता हुँ कि भास्कर अपने सम्पूर्ण अवयवो के साथ उपस्थित हो चुके थे,चारो तरफ प्रकाश फैला हुआ था घडी देखी तो दंग रह गया 8:31 हो चुके थे सुबह के,परीक्षा 10 बजे से थी।
मैं फौरन विस्तर पर से खडा हूआ और जाकर बाथरुम में प्रवेश कर गया,मुझे वहुत जल्दी थी और मैं जल्द से जल्द तैयार होना चाहता था।शायद ही इतनी जल्दी मैंने कभी की होगी बाथरुम से निकलने में जितनी आज की थी।मुझे अच्छी तरह से याद हैं कि कई बार भईया को मेरी वजह से कभी छत्त बाली तो कभी नीचे बाली फ्लोर की बाथरुम का उपयोग करना पडा था।आज अगर मेरे भैया मेरे साथ होते तो पक्का आज वो अचरज से भर जाते।अब मेरे पास दो ही ऑप्शन थे जो कि काफी मुश्किल थे कि मुझे क्या करना चाहिए??? क्या उस अनजाने शख्स का पता लगाना चाहिए या फिर एग्जाम देने जाना चाहिए।दोनो ही काम मुझे उक्त वहुत जरुरी ही दिख रहे थे,इसलिए फिर मैंने एक ऑप्शन को क्लिक कर दिया और तैयार होने मैं लग गया। मैं तैयार होकर सीधे होटल से बाहर निकला और सीधे उसी रास्ते की ओर बढ गया जहाँ से कल हम उसके साथ आये थे।उसी रास्ते को पार करते हुए मैं वापस उसी मन्दिर के पास पहुँच गया।मुझे न जाने क्युँ ऐषा लग रहा था कि वो मन्दिर पर जरुर आयेगी।मैंने वहीं कल बाले कपड़े पहन रखे थे।मैं जाकर सीथा मन्दिर की सीढियों पर एक तरफ वैठ उसका इन्तजार करने लगा।मेरी निगाहें बार-बार न जाने क्युँ घड़ी की तरफ जा रही थी लेकिन घड़ी भी क्या?,वहुत धीरे-धीरे चल रही थी,मुझे एक-एक पल काटना मुश्किल लग रहा था और इधर मेरे पेट मैं चूहों ने उत्पाद मचाना शुरु कर दिया।घर पर तो आठ बजे तक नास्तो हो चुका होता था,और यदि गलती से भी किसी दिन इस समय तक नास्ता न करता था तो पता नही कौन-कौन मनाने आ जाता था।10:30 हो चुके थे,तभी न जाने क्युँ बादलो को मस्ती सूझी और उन्होनें हल्की सी फूहार छोड़ दी।जब तक सहन कर सकता था की,परन्तु जब सहन शक्ति के पार हो गई तो मैं वहाँ से उठा और जाकर मन्दिर के अन्दर बैठ गया।समय निरन्तर अपनी बढता चला जा रहा था परन्तु अभी तक मुझे उसके दीदार नही हुए थे और मेरा भी भूख से हाल-बैहाल हो गया था।मेरा मन खाना खाने जाने को कह रहा था परन्तु दिल ईजाजत नही दे रहा था।आखिर में मैंने एक फैसला लिया और उसी दुकान की तरफ चल दिया जिस दुकान से प्रसाद लेकर उसको दिया था।मैंने प्रसाद का लिया और जाकर अपनी जगहबैठ गया।एक बार मेरा दिल किया कि इस प्रसाद को प्रसाद बना दूँ अर्थात भगवान जी को भोग लगा दू परन्तु मेरे पेट ने ईजाजत नही दी और फिर मैं तो भगवान के प्रति नकारात्मक विचार रखने बाला व्यक्ति हूँ तो फिर मैं क्युँ चढाऊँ??
मैं एक बार खो अपने नकारात्मक विचार किनारे रखे दीदी या भईया की तरफ से चढा भी देता लेकिन वो क्या हैं न कि पेट में चूहे वहुत ऊधम मचा रहे थे और मुझे भी वहुत जोरो की भूख थी तो मैं अपने प्रसाद के डब्बे को बिल्कुल भी किसी के साथ भी नही बाँटना चाहता था।इसलिए मैं अकेल ही उसका आनन्द लेने मैं जुट गया।हा अगर वो इस वक्त आ जाती तो बात और थी और वो यदि पूरा डिब्बा भी माँगती तो दे देता लेकिन क्या हैं न कि ये भगवान जब मेरा ख्याल नही रख रहा तो मैं काहे को खिलाऊ...
वक्त बीतता जा रहा था,सारा का सारा प्रसाद हजम कर चुका था पर निगाहें अभी तक रास्ते पर ही टिकीं थी।इस बीच धूप और वारिश अपनी-अपनी श्रेष्ठता दिखाने से बाज नही आ रहीं थी।कभी धूप निकली तो कभी वारिश हो जाती..फिर धूप निकलती और फिर वारिश हो जाती।मेरा दिल बैंचेन हो उठा था,मैंने मौबाईल निकाला तो देखा कि बच्चा अभी भी सो रहा हैं,मैंने उसे जगाया यानि की उसको ऑन किया तो कुछ ही देर मैं तमाम मिस्डकॉल अलर्ट के मैसेज आ गये।मैंने उसको वापस जेंब के हवाले किया और फिर अपनी निगाहें उसी रास्ते पर जमा दी।जब भी कोई लडकी उस रास्ते से होकर निकलती मुझे लगता कि वो आ रही हैं और मैं कुशी से झूम उठता।जैसा कि आप सब लोग जानते हैं कि जब दीपक का तेल खत्म होने बाला होता हैं तो एकाएक तेज चलेगा फिर मध्यम होगा,फिर तेज होगा,ठीक उसी तरह का मेरा हाल हो रहा था।समय बीतता जा रहा था लेकिन उनके दीदार की उम्मीद और अधिक बढती जा रही थी।सच कहा हैं किसी ने घोर निराशा भी कभी-कभी गहरी और लम्बी आशा को जन्म दे देती हैं।मुझे भी भयंकर निराशा ने आकर घेर लिया था।मुझसे अब वहाँ पर वैठे-वैठे वक्त काटना वहुत मुश्किल लग रहा था,मुझसे अब रहा नही जा रहा था,तभी मेरे मोबाईल ने बजना प्रारम्भ कर दिया।न. देखा तो हमारे सम्मानीय बडे भ्राता जी का फोन था।फोन देख कर ही मन अनेक आशंकाओ से घिर गया,वो छूटते ही मुझसे मेरे एग्जाम के बारे में पूँछेगा जो कि मेरे लिए बताना वहुत अधिक मुश्किल था।सच बताता तो पता नही क्या होता और यदि झूठ बोलता तो बडे भाई का अपमान होता और झूठ किसी न किसी दिन तो पकडा जाता और उस दिन भाई जी को कितना दु:ख पहुँचता शायद वो मेरे लिए सहन करना नामुमकिन था।मैंने फोन उठाया तो ऊधर से कडकती आवाज गूँजी-कैसे हो?शायद भईया व्यस्त थे क्युँकि उनकी आवाज में थकान भी थी।मैंने जबाब दिया -भईया मैं तो अच्छा हूँ मैं आपको कुछ देर में फोन करता हूँ।भईया बोले-ठीक हैं...ओर फोन कट गया।मैं अन्दर से डर गया था इसीलिए मैंने कुछ देर बाद फोन करने कहाँ..।शाम के चार बज चुके थे और मुझे उनका अबतक दीदार नही हुआ था।मुझे फिर से भूख लग आई थी लेकिन मैं अभी तक हिम्मत सादे बैठा हुआ था।मुझे भैया जी की लिखी कुछ पंक्तियाँ याद आ रही थी-:
ये आबोहवा
खुशबू
ये चनम
हर रोज नया
एक मेला हैं,
शिकवा भी करें
किससे यहाँ
ये खेल
किस्मत ने खेला हैं,
कल वो आए
आज हम आए
कल यहाँ
कोई ओर भी आयेगा,
दिल लगा कर
यहीं वो दिल बाला
जोर-जोर से
चिल्लायेगा.
..............
मेरे मोबाईल की घण्टी बज पडी ओर मेरा ध्यान उचट गया,मैंने न. देखा तो उन अंकल का पाया जिनके पास हमें ठहरना था।मैंनें फोन उठाकर उनसे बात की ओर वो मुझे लेने आने का बोल दिये।मुझे अब जल्द से जल्द होटल पहुँचकर पहले तो अपनी दशा शुधारनी थी और दूसरी अपना सामान पैक करना था,ताकि अंकल को इस बातका जरा भी शक न हो कि मैं होटल में रुका था।मैंने एक रिक्शा किया और होटल की तरफ चल दिया पर न जाने क्युँ पीछे मेरा मन क्युँ लगा था उसका न आना मुझे वेहद बुरा लग रहा था।मैं अन्दर से लगभग हीन भावना से ग्रसित हो चुका था,मुझे खुद ही लग रहा थाजैसे मैंने हजारो टन वजन को पीठ पर एक दम उठा लिया हो और उसके वजन की वजह से मेरा पूरा शरीर दुख रहा हो।जिन्होने कभी मुहोब्बत की होगी वो मेरी हालत की कल्पना कर सकते हैं।मैंने होटल पहुँचकर अपना सामान पैक किया और काउन्टर पर चाबी छोडकर वापस रिक्शे को पकड़ लिया।रिक्शे बाले ने मुझे वहीं मन्दिर के किनारे छोड दिया और मैं पुन: जाकर सीढियों पर काबिज हो गया।थोडी ही देर मैं हमारे सम्मानीय चाचा जी अपनी एस.एक्स.फोर लेकर आ गये।हमारी उनसे पहली मुलाकात थी इससे पहले हमने एक दूसरे को कभी नही देखा था।दरअसल वो हमारे किसी रिश्ते में नही थे,वो तो भाई जी के मित्रो में से एक थे,जिनकी अधिक उम्र की वजह से भाई जी उन्हें अकंल कहा करते थे।एक रौब दार शख्सियत से भरे नाटे कद के,बडी तौद बाले हमारे अंकल जी गाडी से उतरते ही इधर-उधर ताकने लगे,एकाएक उनकी नजर मुझ पर पडी और उन्होनें उपने ड्राईवर को मेरी ओर ईशारा करते हुए पूँछकर आने को बोला।दरअसल उस मन्दिर के आस-पास मैं ही एक मात्र ऐषा बन्दा था जो वैग लिये वैठा हुआ था। ड्राईवर ने मुझसे पूँछा- आर.यू.मि.दीक्षित ?
मैंने भी जबाब दिया-या आई एम दीक्षित।
उसके चेहरे पर प्रशन्नता की लहर दौड गई और उसने मेरा सामान उठा लिया।
अंकल ने प्यार से गले लगाया और मेरे हाल-चाल पूँछे,मैंने भी अपनी तरफ से औपचारिकता वरती।मेरी भाषा और स्वाभाव में रुखापन था जिसका कारण मेरी पिछली नाकामयाबी थी,जबकि उनके स्वाभाव में प्रेम की बरसात हो रही थी।मुझे ऐषा बिल्कुल भी नही लगा कि मैं उनसे पहली बार मिल रहा हूँ।मेरा सामान गाडी में रख दिया गया,मेरा उस जगह से जाने का बिल्कुल भी मन नही हो रहा था,लेकिनन अंकल जब लेने आये थे तो साथ तो जाना ही था।अंकल ने मुझसे कहा-बेटा चलो चलते हैं,सब लोग आपका इंतजार कर रहे हैं घर पर।उन्होने मेरे लिए गाडी का दरवाजा खोला और मुझसे बैठने को कहा।मैं ज्यों ही वैठने लगा एका-एक मेरी नजर मन्दिर की तरफ गई।मेरे चेहरे पर खुशी की लहर दौड गई और मैं गाडी से निकलकर उस तरफ भागा।पीछे से अंकल की आवाज आई-सुनो तो बेटा कहाँ जा रहे हो,कुछ लेना हो तो बता दो......
मैने बिना पीछे देखे ही जबाब दिया-अंकल बस एक मिनट,मुझे भगवान जी के दर्शन करने हैं और मैं इतना कहकर जूते फैंकते हुए मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर गया।वो मेरे सामने थी,बिल्कुल ठीक मेरे सामने पर मैं उसे सामने से देखना चाहता था वो भी जी भर के।मैंने कदम बढाये और सीधा जाकर उनके पास जाकर भगवान को प्रणाम करने की मुद्रा में खडा हो गया।मेरी निगाहें बस उसको ही घूर रही थी,उसको मन ही मन में न जाने कितनी उपमाओ से नवाज दिया मैंने,मुझे पता नही वो क्या लग रही थी उस वक्त,सफेद संगमरमर सा बदन,निश्छल,निविकार चेहरा,सुन्दर सजीले नयनो को उसने अपनी पलको के पीछे छुपा लिया था,परन्तु कोमल,मद से भरे,छलकते जाम जैसे अपने औंठो को वो छुपा न पाई थी।वाह जी वाह किसी अप्सरा से कम आँकना तो मेरी भूल ही होगी।आज पहली बार मुझे अहसास हुआ कि भईया कवि क्युँ बन गये।कॉश मैं आज अगर कवि होता तो निश्चित तौर पर श्रंगार रस की वो कविता लिखता की पढने बाले को भी सम्पूर्ण आनन्द की आनुभूति हो जाती।उसने ज्यौं हिं अपने पलक रुपी पटो को खोला,त्यों हीं उसे बस मेरा चेहरा सामने नज़र आया और उसके मुँह से अनायश ही निकल गया- अरे तुम,गये नही अब तक।
नही..
पर क्यु???
कोई अपना सा खो गया था यहाँ उसे वापस पाकर अपने साथ ले जाना हैं।
कौन हैं वो??
इससे पहले मैं उससे कुछ कहता तो देखा कि अंकल मुझे देख रहे हैं।मैं इतनी जल्दी अपनी छवि खराब नही करना चाहता था।मैं चुपचाप उस रब को नमन करने के लिए छुका और बोली- देखो हम तुमसे मिले बिना नही जा सकते थे,कल तुम्हारा इंतजार करेगें हम।इतना कहकर मैं वापस...........मन्दिर से बहार निकले को चल दिया।मन्दिर से बहार आते वक्त मेरा मुँह उसकी तरफ था और मैं चुपचाप अपने कदम पीछे की तरफ बढा रहा था।उसके चेहरे पर बदलते रंग,असमंजस की छाया और हजारो सवालो का अनायश जन्म लेने से पैदा हुई शिकन और सिकुडन ने मुझे यह अंदाजा लगाने पर मजबूर कर दिया कि हो न हो ये किसी गहरी सोच में डूब चुकी हैं।उसका चेहरा अब मेरी तरफ से हटकर वापस भगवानजी की तरफ हो गया था और मैं भी लगभग मन्दिर के बहार ही आ गया था।बहार अंकल और उनका ड्राईवर दोनो खड़े हुए थे।मेरा ध्यान एकाएक जूतो की तरफ गया तो पाया कि सड़क के मध्य वे कीचड से सने पडे थे।मुझे उनकी हालत देख रोना आ गया,लेकिन मैं कर भी क्या सकता था,अब मुझे कुछ भी नही सूझ रहा था कि कैसे जाऊँ आखिर मैंने भी वह जूते उठाना उचित नही समझा और जुर्राबो में ही गाडी की तरफ चल दिया।गाडी के पास पहुँचने तक मेरे दोनो पैरो के जुर्राब खराब हो चुके थे मैंने दोनो को निकालकर फैंक दिया और अंकल से चलने के लिए बोला- चलो अंकल चलते हैं।
-हा चलते हैं पर पहले घर नही,किसी दुकान पर जहाँ से आप जूते ले सको,इतना कहकर वो ड्राईवर से बोले- किसी अच्छे से जूते बाले शोरुम के सामने रोक देना।
रहने दीजिए अंकल,अपन पहले घर चलते हैं सब लोग बिचलित हो रहे होंगे,जूते क्या हैं वो कहाँ भाग रहै हैं फिर कभी ले लेगें।
ठीक हैं,जैसी आपकी मर्जी,
इतना कहकर उन्होनें ड्राईवर से सीधे घर चलने का इंस्ट्रकशन दे दिया।
अब चूँकी ख्यालो में तो खो नही सकता था,इसलिए सोचा चलो घर पे बात कर ली जाऐ ,पर मन में जैसे ही ये विचार पैदा हुआ कि असमंजस भी पैदा हो गई। अब सोच रहा था कि पहले फोन किसको लगाऊँ दीदी को या भैया को,भैया का तो दोपहर को भी फोन आया था मगर दीदी ने तो आज कॉल ही नही किया।चलो एक काम करता हूँ भैया से ही बात कर लेता हूँ लेकिन भैया तो एग्जाम के बारे में पूछेंगें,....
ओह सिट अब क्या करुँ,चलो अब लगा ही लेता हूँ जो होगा देखा जायेगा।यदि उन्होने पूँछा तो सच बता दूँगा।
भैया का न. डायल किया तो व्यस्त आ रहा था।इसी दौरान अंकल ने बीच में ही टोक दिया- किसको फोन लगा रहे हैं आप??
भैया को- मैंने भी जबाब दिया।
अरे अभी क्युँ परेशान होते हो,घर पहुँचकर लगा लेना आराम से- उन्होंने प्यार भरे शब्दो में मुझसे कहाँ।
ठीक हैं- मैंने जबाब दिया।
मैंने मोबाईल को जेब में रखा और पीछे छूटते पेड़ो,हरे भरे घास से युक्त,जगह-जगह पानी से भरे खेत और शहर को देखने में व्यस्त हो गया।शाम के छ: बजने बाले थे।आसमान पर काले मेघो ने कब्जा जमाकर शाम को रात में तब्दील कर दिया।गाड़ी की लाईटें चालू कर ली गई,ऊधर दूर मकानो में जुगनू की तरह चमकते,श्रखंलाबद्ध तरीके से रखे गये दीपो की भाँति रोशनी बिखेरती हुई लाईटें अनायश ही अपना ध्यान खींचने लगी।मेरा मन अचानक फिर सपनो के भंवर में फँस गया।
सफेद संगमरमरी,दूध की तरह उजला,चाँदी की तरह चमक बाला,मोम की तरह नाजुक,रेशम की तरह मुलायमियत का अहसास कराने बाला उसका बदन मानो ऐषा लगता था जैसे किसी मोम और चाँदी के चूर्ण से मिलकर बना कर इटैलियन मार्बल में तराशकर उसलपर ओप दी गई हो,आँखें जैसे किसी आईने का परोक्ष रुप हो,जिनके सहारे आदमी अपने बालो को सवाँर सकता हैं,निश्छल प्रेम से परिपूर्ण उसकी काली बिल्लोरी आँखो का तरल सौन्दर्य,मानो कोई सफेद,स्वच्छ पानी की क्षील हो जिस पर आसमान में छाये काले बादलो की वजह से रंगा काला दिख रहा हो,उनमें निश्चत तौर पर विश्वास और विस्मय दोनो का मिश्रण हैं,वैसे तो उसके पास जुबान थी वहुत कुछ बोलने के लिए परन्तु अगर उसके पास जुबान न भी होती तो ये आँखे निश्चित तौर उसकी जुबान बन जाती।उत्साह,उल्लास,उदासीनता,दु:ख,आकुलता आदि की अनेक छवियाँ उसकी काली आँखो में तैर सकती थी।मद से भरे झलते गुलाबी औंठो को कितने प्यार से उसने सम्हाला होगा,कितनी मुश्किल से उसने उन्हें अपने मजबूत दाँतो से सुरक्षित रख पाया होगा,रोज धूप,मिट्टी के बीच भी वो उनकी कोमलता को कैसे बनाये रखे हुए हैं.....जैसे किसी कमल की अधखुली,नवविकसित पंखुडियो की तरह नाजुकता,सुन्दरता।निश्चित तौर पर मैं ये कह सकता हूँ कई बार पक्का भँवरो और तितलियों ने भी धोखा खाया होगा उसके अधरो को पुष्प समझने का।गालो की सुन्दरता पर कुछ भी कहना मेरी सकत में नही हैं........अरे मैं कहाँ भटक गया।अंकल की आवाज ने फिर से मुझे जमीनी हकीकत पर ला दिया.कितनी सुन्दरता से मैं उसके एक-एक अंग का वर्णन करने में व्यस्त था पर लगता हैं उस खुदा को ये सब पसन्द नही आ रहा था,इसीलिए शायद वो बार-बार किसी न किसी रुप से खलल डाल रहा था।मुझे बार-बार उसका रुप या कहो यौवन ही नजर आना।शायद मेरे अन्दर की हवस के जागने का संकेत था,परन्तु अभी भी वो मेरी शक्ति से पार नही पा सकी थी।एक बात तो सच में कहूँगा उसके यौवन में कुछ तो था ऐषा जिसने मुझे सम्मोहित कर लिया था।सबसे वेहतर लगा मुझे उसका व्यवहार जिसने मेरा पहली बार में ही दिल जीत लिया था।हमारी पहली मुलाकात और उसका हमसे साहचर्यजनित लगाव स्नेह मुझे उसके और निकट ले गया था।तभी गाड़ी का हार्न बजा तो जैसे नींद से जागा हूँ,देखा तो हम बंगले पर पहुँच चुके थे।हम जैसे ही नींचे उतरे अंकल के परिचितों और परिचायको में जैसे श्रद्धा या प्रेम का ज्वार सा उमड़ पड़ा था।मुझे पता नही किस-किस ने कितनी मालाऐं पहनाई और किस-किस फूल की पहनाईं ये तो पता ही नही चल रहा था हाँ कुछ हद तक खुशबू से अंदाजा लगा रहा था।दरवाजे पर स्वागत सत्कार करने बालो की बड़ी लम्बी लाईन थी,हर कोई आता मेरे माथे पर तिलक लगाता और बाकायदा मेरी आरती उतारता और जबरन मेरे मुँह में कोई न कोई मिठाई का टुकडा भर दिया जाता।मुझे ये सब अजीब लग रहा था कि ये लोग ऐषा क्युँ कर रहे हैं परन्तु जैसे कि भैया के इंस्ट्रक्शन थे कि कोई बबाल नही तो ...हम भी किसी का हक नही छीनना चाहते थे और फिर ये कोई परेशानी बाली बात तो थी नही,पर हा ये जरुर था कि मेरे लिए ये स्थिति रीयल लाईफ में नई थी।मैं सबका अभिवादन करते हुए आशीर्वाद प्राप्त करने में लग गया।
 आशीर्वाद प्राप्त करते हुए मैं चुपचाप घर के अन्दर प्रवेश कर गया,जहाँ पर काभी भीड़ होने की वजह से मुझे कुछ सोच-बिचार का वक्त ही नही मिल रहा था।मुझे अंकल ने वैठक में वैठाते हुए सभी लोगो को अन्दर आने के लिए कहा।वैठक की वनावट बिल्कुल पुराने डिजाईन की थी बिल्कुल घर की तरह पुरानी थी लेकिन जिस तरह से उसको बनाया गया था वो काबिले तारीफ थी।भले ही कमरे की बनावट पुरानी थी परन्तु घर कुछ नया बना सा प्रतीत हो रहा था,दीवारो पर उकेरी गई अलमारी,सामान रखने की जगहें एंव साज सज्जा के सामाने के लिए लगाई गई मार्बल प्लेटे नये जमाने की थी।कमरे का आकार तो कुछ खास बड़ा नही था परन्तु एक तख्त और एक दीवान को बड़े ही वेहतर ढंग से अपोजिट डाइरेक्शन में सजाया गया था।बीच में रखी दो लकड़ी की कुर्सियाँ के साथ एक प्लास्टिक की कुर्सी के बीच एक काफी पुरानी मेज,जिसपर एक सादा मेजपोश बिछा हुआ था।कारीगरो की बेढंगी का नमूना छत्त से नज़र आ रहा था।ऐषा लग रहा था मानो किसी चित्रकार ने अपनी कल्पना में आये नदी,पहाड़ और मैदानो को कागज पर उकेरने की जगह सीमेन्ट,कंक्रीट के बने मिश्रण से उकेर दिया हो।मैंने आज तक जितनी भी आर.सी.सी. की छते देखी थी उनमें से कोई भी इस तरह की बनावट की नही थी।शायद यहाँ के कारीगर छत के निचले भाग को स्मुथ देना नही जानते या फिर उस तकनीकी का उपयोग नही करते थे।बहार दरवाजे पर रखा एक लगभग आठ से दस साल पुराना जंग लगा कूलर,दीवान और तख्त पर बिछी कालीने और अलमारी में सजी ओनिडा की टी.वी. के साथ रखा वही बी.एस.एन.एल का डब्बा।
थोड़ी ही देर में कमरा पूरा भर गया था,अंकल जी ने सबको हमारा परिचय दिया और अब अपने परिवार के सभी सदस्यो से मेरा परिचय करवाने में लग गये।परिवार कुछ खास बड़ा तो नही था परन्तु पर्याप्त था,दो बच्चे,दो बहुएँ,एक नाती,एक नातिन,तो बच्चियाँ और अंकल-आन्टी।परिचय के दौरान ही भईया का फोन आ गया- कैसे हो?उन्होंने छूटते ही सवाल दागा।
चरणस्पर्श,अच्छा हूँ एक दम मस्त आप अंकल के न. पर कॉल कर लो इसमें रोमिंग लग रही हैं।
अरे तो तुम अंकल के यहाँ पहुँच गये,वाव,औके भैया ने जबाब दिया।
कुछ देर में अंकल का मोबाईल बज उठा उन्होंने फोन उठाया तो भईया का था,कुछ देर उनसे बात करनके के बाद शायद भैया ने हमारे बारे में पूँछा होगा क्युँकि तभी उन्होने मुझे मोबाईल दिया बात करने के लिए।मैंने कहाँ-चर्णस्पर्श भाई जी कैसे हैं आप,?
हम तो अच्छे हैं आप सुनाइये,नबाब सहाब कहाँ थे कल?
कहीं नही भैया बस...(बीच में ही बात काट दी उन्होने और बोले- कौन से होटल में रुके थे?,खैर छोडो कल बापस आ जाना हम लोगो को बहार जाना हैं ओके।
इस बात से मुझे कोई खास अचरज नही हुआ क्युँकि ये तो पहले से तय था ही कि जैसे ही अंकल उन्हें बतायेगें कि मैं कल अपने दोस्त के यहाँ था,तो तुरन्त समझ जायेगें कि पक्का किसी होटल में रुका होगा क्युँकि वो भली बाँति जानते हैं मेरा पटना में कोई दोस्त नही हैं,इसके अलावा में पटना पहली बार आया हूँ और दूसरी बात में जल्द किसी पर भी भरोसा करना कतई पसन्द नही करता।
ठीक है भैया,हमने भी शालीनता से जबाब दिया।
लो अपनी भाभी से बात करलो- उन्होंने कहा।
मैंने कहा-उनसे कहना थोडी देर से लगाये अभी भोजन करने जाना हैं।हम सभी ने भोजन किया इसके बाद हमें अंकल के साथ वैठक मैं सोने को कह दिया गया।हमने भी वहीं अपना आसन जमाना उचित समझा।समय अपनी गति पर था और मुझे दीद से बात करनी थी इसलिए सोचा चलो बात कर ही लेता हूँ अकंल के मोबाईल से भाई जी को मिस कॉल किया तो उन्होने दीदी को फोन दे दिया और हमारी बातें होने लगी।
हैंलो,कैसे हो-उन्होने छूटते ही सवाल दागा।
मस्त एक दम अच्छा,आप कैसी हैं?
मैं भी अच्छी हूँ....
चलो अच्छा भी हैं वैसे पैकिंग बगैरह तो कर ही लोगी कल मैं निकलूँगा यहाँ से।
हा करली हैं पर जाने का मन नही...
व्हाय यार,ये जुर्म मत करो मुझ पर,
वो हसते हुए बोली-ठीक हैं ठीक है,चलो एक काम करो अब फोन रखो मैं थोड़ी व्यस्त हूँ,बाद में बात करती हूँ ओके बाय।
ओके दीदी.... और उधर से फोन कट गया।पता नही क्युँ मन कर रहा था दीदी को सब बता दूँ पर फिर सोचा घर जाकर बताऊँगा तो सबको चकित होना पडेगा।कुछ देर अंकल से चर्चा करने के बाद अंकल ने मुझे सोने का ादेश देते हुए खुद भी सोने के लिए करवट बदल और मैं भी दूसरी करवट लेकर नींद आने का इंतजार करने लगा।
मेरे दिमाग में फिर से उथल-पुथल मचने लगी और फिर उसकी यादो ने आ घेरा।वो कल मुझे मिलेगी कैसे मिलगी?कहाँ मिलगी?शायद मन्दिर में? या फिर मन्दिर के बाहर?लेकिन मेरे पास सिर्फ कल का ही दिन हैं इसके बाद तो मुझे वापस जाना ही होगा,फिर चाहे मुझे जल्द वापस क्युँ न आना पड़े।इसी तरह के अन्तर्मन में उठ रहे अनेक सवालो के खुद ही जबाब देते-देते पता ही नही चला कि मुझे नींद कब आ गई।
वो मेरे पास आई आकर मुझसे बोली-कैसी लग रही हूँ,उसने वही कल बाले कपड़े पहन रखे थे।मैंने भी जबाब दिया-
खुदा ने बनाया हैं किस ढंग से तुम्हें,
चाँद तारो से सजाया हैं किस ढंग से तुम्हें,
शर्मा जाये गर देख ले चाँदनी तुमको,
उसके रुप से भी सोणा बनाया हैं रब ने तुम्हें,
नही जानता कैसे खुद को रोक पाया होगा,
भेज कर खुदा वहुत रोया होगा तुम्हें।

वो खिलखिलाकर हँस पड़ी,जैसे मैंने कोई मजाक किया हो और बोली- क्या तुम कोई शायर हो ?
मैंने जबाब दिया- नही बिल्कुल नही,शायर और में कभी नही,कभी नही।
ओके-ओके चलो मान लेती हूँ ,वैसे क्या बुलाऊँ तुम्हें?
जो आपका जी चाहें?
हूँह्ह्ह्ह्हह्हह्ह तब तो ठीक हैं आज से मैं तुमको वीरप्पन बुलाऊँगी।अरे नही नही शायद शक्ति कपूर ठीक रहेगा या फिर लुटेरा कैसा रहेगा या फिर चालीस लडकियो के एकलौते मजनू।हाँ ये ठीक हैं आज से तुम यही हुए।
जनाब जब नाम ही देना था तो आशिक दे देती।
दे तो दूँगी,पर तुम हो किसके आशिक..म
आपके..
धत्त पागल...वो शर्माते हुए बोली।
अरे लो जी सही कहो तो भी नही मानती...
वो मेरी बात बीच में काटकर ही बोली- चलो आज से आपका नाम हुआ पागल...
जो मर्जी मेरी जान..
क्या,क्या कहा तुमने,मेरी जान..
हाँ मेरी जान,यही कहाँ...
वह तो एक दम डपट पडी और गुस्से में बोली- तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुम मुझसे मेरी जान कहो,सुनो मिस्टर पागल राम,आई मीन मिस्टर चालीस लड़कियों के एकलौते व्यॉयफ्रैंण्ड मजनू जी,मुझे उन लड़कियो की तरह मत समझना समझे,वरना अच्छा नही होगा।ये अलीबाबा चालीस चोर का खेल अपने घर में जाकर खेलना मेरे साथ नही।मैं उन जैसी लडकियों सी नहीं हूँ जो तुम्हारे जाल में फँस जाऊँ समझे।
अरे सुनो तो,मेरा कहने का मतलब वो नही था.मैंने बात सम्हालने के अद्देश्य से ये बात कही तो वो एक दम नागिन की तरह फुँफखार उठी और बोली-तुम अपने आपको समझते क्या हो,एक बार जरा हँसकर बात क्या करली,मजबूर समझकर मदद क्या कर दी तुम तो सर पे चढने लगे अपनी औकात में रहो वरना बुलाऊँ अपने भाईयों को और तुम्हारे सिर से सारी आशिकी का भूत झणवाऊँ।मेरा चेहरा उतर गया,देखने लायक सूरत बन गयी मेरे चेहरे की ऐषा लग रहा था जैसे किसी ने जमकर धोया हो। अब मेरी नींद खुल चुकी थी और मेरा गला सूख रहा था।मैंने मेज पर रखे हुए जग से पानी पिया और जाकर लेट गया।वापस सोने की कोशिश तो करने लगा परन्तु पिछले स्वप्न से मन में कुछ दहशत सी उत्पन्न हो गई थी जिससे सोने में मन नही लग रहा था।मैं मन ही कह रहा था- हे भगवान आज का पहला स्वप्न ही ऐषा दिया तो अब न जाने रात कैसे कटेगी।मैं तो सोच रहा था कुछ अच्छा स्वप्न आयेगा और हम फिर अपनी रंगीन दुनियाँ में खो जायेगें मगर ऐषा हो न सका।तभी मेरे मोबाईल की घण्टी बज पड़ी नम्बर देखा तो दीदी का फोन था मैंने उसे अटेन्ड करने की बजाये काट दिया।ताकि में फिर से अपने प्यारे से स्वप्नो के शहर में जा सकूँ और अपनी जिन्दगी के सबसे रंगीन स्वप्नो का मजा ले सकूँ।मेरे फोन काट देने से दीदी समझ गई होगीं कि मैं पक्का सोने की तैयारी कर रहा होऊँगा इसलिए फोन नही उठाया।बेचारी मेरी दीदी को क्या पता की उनका छोटा सा प्यारा सा नन्हा सा भाई एक छोटी सी नींद एक डरावने स्वप्न के साथ ले चुका था।मैंने जैसे ही आँखे बन्द की तो मुझे लगा जैसे किसी ने पंखा बन्द कर दिया हो आँखे खोली तो पाया लाईट जा चुकी थी।मुझे लाईट का जाना बिल्कुल भी पसन्द नही हैं क्युँकि मुझे मच्छरो से सख्त नफरत हैं।मैं जब भी ऊरई जाता हूँ तो यही सोचता हूँ की वहाँ रात न गुजारनी पड़े,अगर कभी गलती से भी मुझे वहाँ रात गुजारनी पडती तो मैं अपनी गाडी में सोना पसन्द करता था क्युँकि वहाँ पर तो जैसे मच्छरो का भण्डार हो।वैसे तो ऊरई मामा माहिल और गुलाब जामुन के लिए प्रसिद्ध हैं परन्तु वहुत कम लोग ही जानते हैं कि यहाँ पर तीन चीजे सबसे अधिक पाईं जाती हैं जो हैं- खच्चर,मच्छर और पिक्चर।मच्छरो के प्रति यहाँ की नगरपालिका को कितना प्रेम हैं ये वहाँ पर स्थित एक चौराहे के नाम से आप समझ सकते हैं जिसका नाम हैं।मच्छर चौराहा।बिजली जा चुकी थी और मच्छर अपनी प्रिय धुन को बजाते हुए कमरे में प्रवेश करने लगे,मुझे अपने पैरो और हाथों पर चुभने बाले कुछ काँटो से ये समझ आ गया। अत: मैंने वहाँ से हटना ही वेहतर समझा और छत पर जाने का निश्चिय किया।छत पर पहुँचने के लिए हमने मोबाईल की रोशनी का सहारा लिया और छत पर पहुँच गये।छत पर आकर देखा तो वो कहावत बिल्कुल सही साबित हुई जिसमें कहते हैं न कि गरीबी में आटा गीला,मेरे साथ भी वही हुआ।दरअसल ऊपर छत पर आया तो पाया की इन्द्र देव जी अपने पर्याप्त वेग से जल को जमीन से मिला रहे थे।मैं चुपचाप दीबाल पर लगे टीनशैड के नीचे खड़ा होकर वारिश के रुकने का इंतजार करने लगा।मुझे वारिश के रुकने से ज्यादा बिजली आने का इंतजार था क्युँकि में जल्द से जल्द अपने रंगीन स्वप्नो की दुनियाँ में खोना चाहता था।तभी मुझे किसी मशीन के स्टार्ट होने की आवाज आई और कुछ ही देर में सारे घर में प्रकाश फैल गया।यानि वो आवाज जनरेटर की थी।अंकल के घर में यानि जनरेटर था।चलो अच्छा हुआ और ऐषा सोचते हुए में वापस नीचे उतर कर कमरे में ज्यूँ प्रवेश किया तो पाया कि अंकल तो जाग रहे हैं।उन्होंने सवाल दागा-कहाँ गये थे आप?
छत पर था,सोचा जबतक बिजली नही आती प्राकृतिक हवा खा लूँ मैंने उन्हे जबाब दिया।वो मुस्कुराये और बोले-किसी भी चीज की आवश्यकता हो तो माँग लीजिएगा।मैंने कहा-ठीक है।
अंकल अपने विस्तर पर लेट गये,मैं भी गया और अपने विस्तर में समा गया ताकि जल्द से जल्द अपने प्यारे,सुनहरे स्वप्नो में खो सकूँ।मुझे वही बुरे-बुरे ख्याल फिर से आने लगे जो मैंने अभी पिछले स्वप्न में देखे थे।मैने अपने दिमाग को परिवर्तित करने के लिए पहली मुलाकात के हसीन पलो को याद करना प्रारम्भ कर दिया।अभी कुछ ही देर हुई थी एकाएक पता नही किसने मेरे मोबाईल न. पर फोन किया,मैने न. पर देखा तो कोई अनजाना न. था इसलिए मैंने फोन उठाना उचित नही समझा और अपने मोबाईल को स्विच ऑफ कर दिया ताकि फिर कोई बाधा उत्पन्न न हो मेरे और उसके मिलन में।मैँ अपने मन ही मन में उसके परिवार के सदस्यो के बारे में कल्पना करने लगा।सोचने लगा उससे कल मिलूँगा फिर उसे अपने दिल का हाल बताऊँगा वो झट से मान जायेगी फिर हम उसके घर जायेगें अपने भाई के साथ और हमारा रिश्ता हो जायेगा।अरे नही नही इतनी सिम्पल स्टोरी बिल्कुल नही।ऐषा करता हूँ उनके भाई मेरा विरोध करेगें पहले हम उन्हें मनायेगे फिर हम अपने घर बालो को बुलायेगे।अरे नही ये तो वहुत आसान हो जायेगा।क्युँ न उसका बाप खूसट और पैसे का रौब दिखाने बाला इंसान हो और वो मुझे पहली मुलाकात में अपने घर से जाहिल और सड़क छाप कहकर घर से निकलने को कहे।फिर जब उसे पता चले मेरे भाई का नाम क्या हैं और मै युराज का छोटा भाई हूँ तो वो मुझे मनाते हुए बल्कि प्यारसे अपने घर ले जाये यहाँ तक की अपने द्वारा की गई भूल की क्षमा भी माँगे।अचानक मेरा ध्यान टूटा।दरअसल किसी ने कुछ पटक दिया था अन्दर।शायद बिल्ली रही होगी जिसने कोई वर्तन गिरा दिया होगा।लगभग ग्यारह बजने बाले थे और अभी तक मैं सिर्फ एक स्वप्न ही देख पाया था।जबकि मैं तो सारी रात उसके स्वप्नो में काटना चाहता था।लेकिन न जाने क्युँ ऐषा हो नही पा रहा था।
मैं पुन: नींद आने का इंतजार करने लगा और उसके बारे में सोचने में लग गया।
अब स्वप्न का दृश्य बदल चुका था,हम लोग एक पार्क में स्थित एक बैंच पर बैठे हुए थे।दोनो ही अपनी प्रेम लीला में मग्न होते जा रहे थे।हम कभी उसे अपने बारे में कहते तो कभी व मुझसे अपने बारे मं कहती इसी तरह हम लोगो का वार्तालाप चल रहा था।इसी बीच मेरा हाथ उसकेगले में पहुँच गया लेकिन उसने कोई विरोध नही किया और हम हम लोग इसी तरह अपने प्रेम में मशगूल थे शायद दीन-दुनियाँ की फिक्र किये वेगैर।शायद कुछ लोगो को हमारा इस तरह वैठना खासा पसन्द आ रहा था इसलिए शायद वो चुपके-चुपके हम दोनो को देख रहे थे।वो मुझसे फुसफुसा कर बोली-सही से बैठो देखो लोग देख रहे हैं।
मैं वापस अपनी पहले बाली मुद्रा में आ गया,लेकिन मेरा दिल बिल्कुल भी नही मान रहा था।तभी मुझे ऐषा लगा जैसे सामने बाले गेट से भैया और भाभी जी दोनो ही आ रहे हैं।अरे,ये कैसे आ सकते हैं ये तो दुबई गये हुए थे छुट्टियाँ मनाने के लिए,फिर ये यहाँ कैसे???? ऐषा मन ही मन सोचने लगा।मेरे चेहरे का रंग उतरता देख वह बोली-क्या हुआ? तुम इतना क्युँ घबरा रहे हो?
भैया आ रहे हैं,लगता हैं उनको सब पता चल गया-मैंने उसे जबाब दिया।
वो घबरा गई और बोली-अब हमें क्या करना चाहिए?
चलो एक काम करत हैं,अपुन उन झाडियों मे छुप जाते हैं भैया हमको दएख भी नही पायेगे-मैंने उससे कहा।
चलो ठीक हैं,जल्दी चलो....
और हम लोगो ने झाँडियों की तरफ दौड लगा दी,वहाँ पहुँचकर देखा तो वहाँ झाँडिया थी ही नही वहाँ तो एक सफाचट मैदान था जिसमें सिर्फ घास थी,पीछे पलटकर देखा तो हमें दूर-दूर तक कोई नज़र नही आया।हम लोग कुछ देर वहाँ पर वैठे और फिर वापस आ गये।मैंने उसके गुलाबी ओंठो को अपने हाथो से छुपा तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और रुठने का नाटक करने लगी,मैं उसे मनाने में लग गया।तभी उसकी सामने लगे गैंदे के पौधे पर गई,जिस पर गले गैंदे के एक फूल पर बैठी तितली पर उसकी नज़र पड़ जाती है। वह उसे घूरने लगती है। न जाने क्युँ उसकी आँखों के सामने तैरती वो तितली अचानक उसे बचपन में धकेल देती हैं,जहाँ वह एक छोटी सी बच्ची होती हैं जो बागों में लगे पुष्पो पर बैठी तितलियो को पकड़ा करती थी।वह अपने बचपन के दिनो में वापस लौट एक छोटी सी बच्ची बन जाती है। वह उस तितली को पकडना चाहती हैं इसलिए वह धीमे-धीमे बिना शोर किये उसे हाथो में उठाने के लिये उसकी ओर भागने लगती है। तितली दूसरे फूल पर जा बैठती है। वह फिर उसके पीछे-पीछे भागने लगती है। तितली एक और फूल पर जा बैठती है। वह भी उसके पीछे-पीछे फूल दर-फूल पीछे भागने लगती है। उसे इस तरह देखकर लग रहा था जैसे कोई छोटी बच्ची किसी अपनी सहेली के साथ पकड़म पकड़ाई का खेल खेल रही हो। तितली कभी एक फूल तो कभी दूसरे फूल पर और वह उसके पीछे-पीछे भागती जा रही थी। फिर तितली उसकी आँखों से ओझल हो जाती है। अरे ये तितली कहाँ चली गई? और वो उदास हो जाती हैं।मुझे उसका उदास चेहरा एक पल को भी नही जचँता हैं,तभी अचानक वह तितली वापस उडती हुई उसके सामने से निकल जाती हैं।तितली तो वापस आ गई थी साथ ही उसके चेहरे पर खुशी भी लेकिन तितली का वापस आना मुझे ऐषा लगा जैसे उसे भी इस खेल में मजा आ रहा हो और वह भी ये खेल खेलना चाहती हो।तितली जाकर एक गुलाब के फूल पर वैठ जाती हैं और वो उसके पीछे भागती हुई उस गुलाब के पौधे के पास पहुँच जाती हैं।तितली अभी भी आराम से नही बैठी हुई थी,ऐषा लग रहा था जैसे वो तैयार हो उडने के लिए।तभी उसने उस तितली को पकडने के लिए एक तेज झपट्टा मारा,तितली तो उड गई जैसे उसे पता हो कि उस पर हमला होने बाला हैं,लेकिन सावधानी से नहमला करने की वजह से चुकसान उसको उठाना पडा और उसके हाथो में गुलाब के फूल के साथ लगा काँचा चुभ गया,बस फिर क्या था ईधर हाँथ से रक्त धारा निकली ऊधर उसके प्यारे-प्यारे नयनो से आँशू धारा निकली।वो आँसू उसकी नैयनो की तलैया से निकलकर गुलाबी गालो से होते हुँ नीचे टपकने को हुए वैसे ही मैंने उन्हें अपनी ऊँगली से रोक लिया।उसकी ऊघली से वहती रक्त धारा देख कर मेरा मन भी वहुत दु:खी हो गया।मैंने उसका हाथ पकडा और उसकी ऊँगली को अपने औंठो के बीच दवा लियाडदूसरे हाथ से उसके आँसू पौंछने लगा।उसके चेहरे पर पीडा के निशान थे लेकिन उसे मेरा मुँह में ऊँगली रखना शायद अच्छा लगा इसलिए शायद वो मुस्कुरा दी।खैर मैं तो अपना कर्तव्य निभाते हुए अपने दिल को बता रहा था कि देख बेटा कितनी फिक्र करता हूँ में इसकी। मैंने गुलाब के फूल की कुछ पंखुडियाँ तोड कर उसके ऊँगली पर लपेट दी और उसके काँधो को पकड वापस उसे उसी बैंच पर विठाया,इस बीच उसका दर्द लगभग-लगभग भाग चुका था।वो चुपचाप गुमसुम सी थी,मैंने उससे पूँछा तो कुछ नही बोली,लेकिन जब दोबारा पूँछा तो उसने बस इतना ही कहा- वो तितली कितनी प्यारी थी।
तो आपको वो तितली चाहिए?-मैंने उससे पूँछा।
हाँ -उसने मुझे जबाब दिया।
अब मेरी निगाहें तितली को खोजने में लग गई मगर मुझे वो तितली कहीं भी दिखाई नही दे रही थी।मैं घूमते हुए उस तितली को खोजने में लग गया मगर वो मुझे न दिखी।मैंने उससे पूँछा- क्या कोई और तितली नही चलेगी?
उसने बस हाँ में सिर हिला दिया।अब तो हम बस तितलियों के पीछे लगे भागने,करीब दस मिनट हो गये मगर एक तितली भी मेरी पकड में न आई और वो ऊधर मेरे द्वारा मचाई जा रही धमाचौकडी पर हस रही थी।मैं परेशान हो गया क्युँकि मुझे किसी भी तरह से बस तितली को पकडना था।आखिर एक तरीका दिमाग में आ गया और मैं झट से फूल तोडने में लग गया,कुछ अच्छे से फूल इक्ठ्ठे करने के बाद में चुपचाप जाकर उसकी बगल मैं वैठ गया।मुझे आया देखकर वो बोली-अरे तुम लाये नही,ये तितलियाँ है जनाब लडकियाँ नही,अलीबाबा जी,इतना कहकर वो खिलखिलाकर हँस पडी।मुझे उसका हँसना काफी अच्छा लगा और मैंने जबाब दिया-
देखो यार,मुझे लडकियों का तो अनुभव नही पर हाँ तितली जरुर पकड के बता सकता हूँ।
तो ठीक हैं,आप पकड लो जब पकड जायें तब हम आपसे बात करेगें,तब तक नही।उसने मुझसे कहा।
अरे यार ये कौन सी बात होती हैं...
उसने मुँह दूसरी तरफ को कर लिया।मैंने भी अब मनाना उचित नही समझा क्युँकि अब इससे कोई फायदा होने बाला नही था।मैंने सभी फूलो का एक बंण्डल बनाया और उन्हें बैंच के दूसरी तरफ रखकर बैठ गया।अब मुझे किसी भी तरह से बस तितली को पकडना था क्युँकि उसके बिना तो अब बात होनी असम्भव थी।काफी वक्त गुजर गया मगर कोई तितली न आई और ईधर उसके चेहरे पर भी बैचेनी के के भाव उभर पडे थे उसे अब शायद लगने लगा था कि मैं अब तितली को नही पकड पाऊँगा।उसने अपना हठ त्यागते हुए बोली चलो छोड़ो रहने दीजिए,मुझे नही चाहिए तितली-बितली।
ठीक हैं,लेकिन यार प्लीज नाराज मत होना-मैंने उसे जबाब दिया।
अगर नाराज होती तो आपसे बात भी न करती -उसने जबाब दिया।
जबाब सुनकर मन को संतोष पहुँचा और मैं मुस्कुराने लगा,अब मैं वहाँ पर ज्यादा देर नही रुकना चाहता था इसलिए चलने को उससे कहा।उसने भी दर्ज की तो हम चलने को उठ खड़े हुए,मैंने ज्योंहि फूलो के गुलदस्ते को हाथ लगाया त्योंहि आशर्चय से भर गया दरअसल जिस तितली के लिए मैं काफी देर परेशान होता रहा,ईधर-ऊधर भागता रहा वो ही तितली आकर मेरे फूलो के गलदस्ते पर बैंठी हुई थी।हमने उसे बुलाकर तितली को दिखाया तो मुस्कुरादी। उसने अपना हाथ बढ़आया और तितली को पंखो के बल पकड़ लिया और वापस उसे लेकर बैंठ गई।शायद तितली थक चुकी थी क्युँकि उसने फिर से पहले बाली हरकतें नही दोहराईं थी या ये कह दो तितली से उसकी उदासी देखी नही गई इसलिए आत्मसमर्पण कर दिया।उस वक्त मुझे तितली किसी देवदूत से कम नज़र नही आ रही थी आखिर एक छोटे से जीव ने हमारी खुशियों का ख्याल रखा अगर वो चाहतीं तो बाग के किसी अन्य पुष्प पर भी बैंठ सकती थी परन्तु उसने ऐषा नही किया।मुझे नही पता जब उसने उस नन्ही सी सुन्दर सी तितली को पंखो के बल पकड़ा होगा तो उसे कितना दर्द हुआ होगा शायद कुछ ज्यादा ही।लेकिन हम मानव उसके दर्द का एहसास भला कैसे कर सकते थे या उसकी आँखो में तैरती दर्द की रेखाओ को कैसे पढ़ सकते थे क्युँकि उस वक्त तो हम दोनो ही अलग-अलग तरह से अपने रुपो में खोए हुए थे।वो उस नन्ही सी तितली को पाकर खुद नन्ही सी बच्ची बन गई थी तो वहीं दूसरी ओर मैं उस नन्ही सी बच्ची के चेहरे पर खुशियों के हज़ारो रंग देखकर खुश हो रहा था।एक पल के लिए भी मेरे मन में उस तितली की वेदना समझने का विचार नही आया और न ही उस तितली के प्रति कोई दया का भाव पैदा हुआ।मुझे एक पल को भी उस छोटे से जीव पर दया नही आई वो उढ़ नही पा रही थी।चुपचाप मायूस सी वो दोनो पंखो को हिलाने की कोशिश करने में जुटी हुई थी।
स्वप्न का दृश्य अब बदल चुका था और अब मैं उसके साथ मन्दिर में पहुँच चुका था,घण्टो की ध्वनि सुनाई कानो तक पहुँच रही थी.................।
दीवाल पर टंगी दीवल घड़ी से निकलती आवाज ने मेरी नींद को भगा दिया था,उठ कर चारो तरफ देखा तो प्रकाश चारो तरफ फैल चुका था,चारो तरफ भाष्कर ही भाष्कर छाऐं हुए थे।सुबह के सात बज चुके थे मैंने तैयार होने में ही भलाई समझी और जाकर बाथरुम में प्रवेश कर गया।नास्ता वगैरह से निवर्त हो मैं वापस जाने की आज्ञा लेने अंकल के पास गया और उन्हें भैया का सन्देश बतलाया आखिर कार उन्होने मुझे विदा करने का मन बड़े ही अनमने ढंग से बनाया।मुझे वापस पटना स्टेशन पर छोड़ दिया गया और मैं वहाँ पर अपनी आने बाली ट्रेन का इंतजार करने लगा।घड़ी लगभग दस बजा चुकी थी तभी मुझे उसकी याद आई और कल के कहे हुए लब्ज भी याद आ गये पतर्तु अब कुछ नही किया जा सकता था क्युँकि भैया का आदेश आ चुका था और मुझे वापस अपने शहर जाना ही था।करीबन सवा घण्टे के इंतजार के बाद हमारी ट्रेन आई हमने अपना सामान उठाया और अपनी सीट पर लेजकर रख दिया और आकर बहार खड़ा हो गया।मैं उससे बिना मिले नही जाना चाहता था,सवा घण्टें तक मेरी निगाहें शायद ही प्लेटफार्म न. एक से हटी हो क्युँकि मन में न जाने क्युँ उनके दीदार की लालसा उमण रही थी लेकिन उसका दूर-दूर तक कोई पता नही चल रहा था।ट्रैन का हार्न बजने लगा और मैं जाकर चुपचाप अपनी सीट पर लेट गया।
कितने कमाल की बात थी कि जिस पटना का चित्र मेरे दिमाग में एक गंधी/राजनैतिक/गुण्डागर्दी बाली छवि के साथ विराजमान था न जाने क्युँ वो मुझे किसी स्वर्ग सा नज़र आने लगा था।मुझे कहीं भी इस तरह का माहौल नही मिला जहाँ पर मुझे लगा हो ये कुछ मित्रो द्वारा बताया गया पटना हैं क्या सचमुच अरे कहीं मैं और तो कहीं नही आ गया था दो दिन को,अरे नही यार ये तो पटना ही हैं।परन्तु क्या मेरे मित्र मेरी बात सुनेगें उन्हें यकीन होगा कि मैं जिस पटना में होकर आया हूँ वो वहुत सुन्दर और प्रेमभाव से परिपूर्ण हैं।
सफ़र के दौरान पटना में बिताये दिनो का एक-एक पल आँखो के सामने आ रहा था,स्टेशन से निकलकर मन्दिर तक पहुँचना,मन्दिर की सीढ़ियों पर से मेरा गिरना,उसका दीदार होना,उसका मुस्कुराता चेहरा,उसकी शरबतीं आँखे......
होटल तक का सफ़र,यहाँ तक की उसका कहा गया एक-एक शब्द मेरे कानो में गूँजने लगा था।एकाएक मैं उठा और झट से अपना बैग टटोलने लगा उसको खोला और उसकी पसन्द की शर्ट को अपने हाथों में ले लिया,मैंने उस शर्ट को सीने से लगाया और वापस उसको बैग के हवाले कर दिया।अब बारी थी पर्स की जिसमें उसका दिया गया वो हज़ार का नोट रखा हुआ था उस नोट को निकाला एक बार देखा,फिर से देखा और फिर से देखा।उस नोट को देखते वक्त मुझे उसके समीप होने का एहसास हो रहा था। मैंने उस नोट को अपने लवो से छुवाया और वापस उसको यथा स्थान रख दिया।पटना से ट्रैन काफी दूर निकल आई थी परन्तु न जाने क्युँ मुझे कुछ खालीपन का एहसास हो रहा था,शायद मेरा दिल वहीं पर छूट गया था।शायद उसी के पास जिसके स्वप्नो ने पिछले दो दिनो से मेरे भावो को दबा रखा था।शायद उसी के जिसके ख्यालो में खोकर मैंने अपनी जिन्दगी के सबसे महत्पूर्ण एग्जाम में शामिल न होने का फैसला किया था।
हालिया घटनाओ ने मेरा दिमाग सुन्न कर दिया था,न में कुछ सोच पा रहा था और न ही कुछ कर पा रहा था,बस मेरे दिलों-दिमाग में उसी की तस्वीर बार-बार आ कर मुझे सता रही थी|मैंने अपनी डायरी निकाली और कुछ पंक्तियाँ कलमबध्द करने लगा-:

बड़ी हुयी निराशा मुझे जानकर
की मुझे जाना होगा
लगता तो बस यही है
जुदाई की पंक्तियों को गुनगुनाना होगा ...

अभी आगें की पंक्तियां लिखने का विचार चल ही रहा था की एक मोहतरमा जिनकी उम्र करीब 25 या 26 रही होगी उन्होंने आकर मुझसे कुछ कहा ,मैं लिखने में व्यस्त था तो ढंग से सुन नहीं पाया इसलिए मैंने उनकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहें की,शायद वो भी समझदार थीं जो उन्होंने मेरे नज़रों की भाषा को समझ लिया और अपनी कही बात दोहरा दी|दरअसल वे एक निवेदन लेकर प्रस्तुत हुयी थी जिसमे वो हमसे हमारी सीट का कुछ हिस्सा मांग रही थी .....इससे मुझे कुछ आपत्ति भी नही थी इसलिए मैंने उन्हें इजाज़त दे दी .....वो अपना हैण्ड बैग लेकर मेरी सीट पर आकर बैठ गयी और सामने बलि बर्थ पर लेते अंकल से बात करने में मशगूल हो गयिन |मैंने अपना ध्यान वापस डायरी की तरफ करने की कोशिश की लेकिन उनकी कचर-पचरने मुझे ध्यान न लगाने दिया,मैं वहां से खड़ा हुआ और गेट के पास खड़ा होकर सुहाने मौषम का मज़ा लेने में जुट गया ..उस वक़्त मेरी जुबान पर जगजीत जी गाई हुयी एक हसीन ग़ज़ल थी |काफी देर वंहा खड़े रहने के बाद में वापस अपनी सीट पर आया तो देखा की मोहतरमा पूरी सीट को अपने कब्ज़े में ले चुकी थीं ,मैंने भी उनसे बिना कुछ कहे जाकर उनकी बर्थ पर लेट गया पर न जाने क्यूँ नींद मुझसे कोसो दूर थी ....मगर दिमाग में आभी भी बस बही चेहरा बसा हुआ था जो मुझे वहां पटना में अपने दर्शन देकर दीवाना बना गया था|उसकी तस्वीर उतनी ही हसीन थी जितनी की वह स्वम |
मैंने अपना mobile ओन किया और उसके गमेजोंन में जाकर गेम खेलने में व्यस्त हो गया,तभी mobile बजा,उसमें दीदी का फोन था मैंने रिसीव किया और उनसे बात कुछ देर बात की इसके बाद बापस आकर अपनी वर्थ पर हलकी सी जगह बनाकर अपनी बर्थ पर बैठ गया |अंकल जो शायद को व्यवसायी रहे होने उन्हें उस लड़की में कुछ ज्यादा ही इंटरेस्ट हो गया था और अब वे उठकर बैठ चुके थे और आपस में सवाल ज़बाब करते हुए अपनी अमीर का बखान कर रहे थे या ये भी कह सकता हूँ की स्वम ही मिया मिट्ठू बन रहे थे,अब मैंने भी उनके मज़े लेने का प्लान बना लिया और उनके साथ जुड़ने के लिए मौके की तलाश करने लगा .....वो मौका भी सीघ्र ही मिल गया जब उन्होंने मुझसे मेरा परिचय माँगा ,मैंने अपना पीछे दिया तो स्वाभिक था की उनसे मांगता ,उन्होंने भी अपना परिचय दिया वो खुद को kanpur का एक फार्चून के सामान का व्यवसायी बता रहे थे जबकि मोहतरमा खुद को    लखनऊ में एक दूरसंचार कम्पनी ऐर्त्रेल की वर्कर बता रहीं थी उन्होंने अपना नाम पायल श्रीवास्तव बताया था चुकीं मुझे उनमे कोई इंटरेस्ट नही था इसलिए मैंने अभीतक उनके शारीरिक बनावट का कोई वर्णन नही किया है,क्यूंकि मुझे नही लगता की उनका सम्पूर्ण परिचय आवश्यक है |काफी देर तक इधर उधर की बात करने के बाद मैंने उनके गृह नगर के बारे में बहुत सी जानकारियान लेता रहा इतने में एक मित्र का फोन आ जाता है और हम वहां से खड़े होकर कुच्दर उससे बात करते हैं और बापस आकार अपनी जगह पर बैठ जाते है .....अब चूँकि बात-चीत पर्सनल मोड़ पर आ चुकी थी तो में चुपचाप हो गया ...क्यूंकि में नही चाहता था की कोई मुझसे मेरी कहानी जन सके|मैंने पायल जी से निवेदन किया की वो मुझे खिड़की के पास बालि जगह दें,और उन्होंने मेरी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए मुझे जगह उपलब्ध करा दी|मैंने अपनी डायरी उठाई और उसमे लिखे कुमार विश्वास जी के एक गीत की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगा

कोई दीवाना कहता है,कोई पागल समझता है
मगर धरती की बैचेनी को बस बदल समझता हैं,

तू मुझसे दूर कैसे है,मैं तुझसे दूर कैसे हूँ
ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता हैं,

अरे वाह क्या बात है,आप तो गाना भी गातें है बैसे ये किस फिल्म का है, उन्होंने मुझसे सवाल किया
किसी फिल्म का नही ये kavi कुमार विश्वास जी का है,उनके एक kavi सम्मलेन के video को देखकर लिखा है ..मैंने शालीनता से उन्हें जवाब दिया ..
अरे,ज़रा दिखाना और इतना कहकर उन्होंने मुझसे मेरी डायरी छीन ली और बउसको पढने लगीं
मैंने अपना ध्यान खिड़की के बहार तेज़ी से विपरीत दिशा की तरफ भागते पेड़-पौधों की तरफ कर लिया और उनमे ही कुछ अलग धुदने की कौशिश करने लगा.......मेरी आँखे लगभग एक कमरे का रूप ले चुकीं थी जो किसी ऐसे फोटोग्राफर के पास था जिसे बस एक ही जुनून था की एक द्रश्य भी ओझल नही होना चाहिए |उन्होंने कुछ मेरी लिखी हुयी रचनाये भी पढ़ी और इसके बाद मेरी डायरी की एक प्रति देने की मांग करने लगी मैंने भी उनको झुन्ति दिलासा देते हुए हामी भर दी|इसके बाद वो डायरी अंकल के पास पहुँच गयी और वो उसको पढने में व्यस्त हो गए......
अब खाने का प्रोग्राम शुरू होने बाला था उस लड़की ने आपना टिफिन निकला और हम दोनों को भोजन के लिए आमंत्रित किया मैंने पहले तो मन कर दिया परन्तु उनके बार-बार कहने पर मैंने हामी भर दी .....खाने में सब सामान बाहरी था यानि की दुकानों से ख़रीदा हुआ था |मैंने भोजन ग्रहण करने के बाद सोने का विचार किया और जाकर उनकी वर्थ पर लेट गया ,जल्द ही नींद आ गयी और में सो गया |
मैं किसी अनजान रह पर निरंतर बाधा जा रहा था जन्हा चारो तरफ बस घरी-गहरी खईन्याँ ही थी ,ये रास्ता शायद अनंत की और जाता  था उबद्खाबाद चरों तरफ किनारों पर कटीली झाड़ियाँ कड़ी हुयीं थी ..बहुत ही भयानक रास्ता शायद किसी निचे बाले धाम की तरफ ..यानी की नरक के द्वार बाली रास्ता थी .......तभी कुछ नरपिशाच तरह के लोग मेरे पीछे भागे...मैं भी भगा ..बहुत जोर से भगा.....बहुत-बहुत जोर से भगा लेकिन कदम भक गए और में निचे बहुत निचे घरी खाई में जाकर गिर गया और मेरे सरे कपडे भीं गए थी न जाने काहाँ से एक तेज़ पानी की बौछार आई और आकर मेरे चेहरे पर गिरी में तिलमिलाकर खड़ा हो गया ....अपने आस-पास देखा तो कुछ पोलिस बाले मुझे घेरे हुए खड़े थे,मैं जमीं पर पड़ा हुआ था .....मेरा सर कुछ भारी-भारी सा लग रहा था .......मैंने आस-पास का जायजा लिया तो पाया की मेरे बगल में बही अंकल भी लेते हुए थे शायद वो अभी भी बेहोशी की हालत में थे तभी डॉक्टर आया और उसने मेरा चेकुप करने के बाद मुझे क्लीन चित देदी ....परन्तु मेरी समझ में अभी तक कुछ भी नही आया था  |
इकपोलिस का सिपाही मेरे पास आया और उसने मुझसे सवाल करने शुरू कर दिए कौन हो ?,कहाँ से आये हो? किधर जा रहे थे?क्युआ हुआ??
मैंने उन्हें सबकुछ बताया तो उन्होंने मेरे घर पर मेरे भाई को खबर की उसके बाद मुझे कुछ देर तक बिठला गया जिसके दौरान मुझसे हुलिया बगैरह एवं खोये हुए सामान का व्योरा माँगा,मैंने भी उनको सब कुछ बता दिया और वहां से उठकर एकांत जगह में जाकर बैठ गया |
दरअसल हुआ ये थे की वो पायल श्रीवास्तव जी कोई दूर संचार कर्मचारी नही थी बल्कि ज़हार्खुरानी गिरोह की सदस्य थी ...उन्होंने हमारे खाने में कोई नशीला पदार्थ मिला दिया था जिसकी बजह से हम लोगो को नींद आ गयी थी.....और वो मोहतरमा हमारा सामन लेकर किसी स्टेशन पर उतर गयीं .......वो तो भला हो उन महाशय का जिनके नाम पर उस बर्थ का रिजर्वेशन लखनऊ से था ...वो जब आये तो में उस पर लेता था उन्होंने मुझे जगाने की कोशिश की होगी परन्तु कोई प्रतिउत्तर न मिलने की वजह से उन्होंने पोलिस को सूचित कर दिया और जी.आर.पे.ऍफ़ बालों ने हमें अपने अन्दर में ले लिया इसके आगे की कहानी में ऊपर लिख ही चूका हूँ |
मैंने अपनी जेबे टटोली तो मुझे कुछ भी नही मिला ,एक कागज़ का टुकड़ा तक नही मेरा माथा ठनक  गया........मुझे अपने सामान के खोने से ज्यादा उस हज़ार के नोट और आर उस शर्ट के खोने का गम कुछ ज्यादा ही था |मैं औरभी आधिक मायुश हो गया ...................
ये पटना यात्रा मेरे जीवन की पहली एक अलग तरह की यात्रा के अलावा कभी न भुलाने बलि यात्रा बन गयी .....पटना पहुंचकर मैंने अपना दिलखो दिया ...और पटना से वापस आने में अपना सामान ......
 उदासी भरे सफ़र की यादों ने दिमाग को शुन्यता प्रदान कर दी जिससे मुझे लगभग अचेत अवस्था मिल गयी ,तभी अचानक किसी ने मुझे उठने के लिए आवाज़ दी ,मैंने देखा तो पाया कोई लखनऊ पोलिस का सिपाही था....मैंने उसकी तरफ प्रश्नवाचक निगाहों से देखा तो उसने कहा -खड़े हो जाओ आपको हमारे साथ चलना है |मैंने ये पूंछना भी जरुरी नही समझा की कहाँ चलना है बस उसके साथ हो लिया|वो मुझे ठाणे के बहार एक बेकरी पर लेकर आया और बेकरी बाले से बड़े ही रौबदार यानि की पुलिसिया लहजे में बोला इसे जो भी खाना हो खिला दो,चाय-वाय भी पिला देना |और मुझसे आकर बोला खा पी कर अन्दर आ जाना तुम्हारे भाई साहब आ रहे हैं तुमको लेने,कंही गम मत हो जाना मुझे साहब के साथ जाना है |मैंने चुपचाप स्वीकृति दी और बेकरी पर काफी देर तक बैठा रहा थोडा बहुत जो भी खाया जा सका खाया आर चुपचाप जाकर ठाणे के अन्दर पड़ी बेंच पर बैठ gaya |जब कोई अपने साथ अच्छा करता है तो उसके प्रति man में अच्छे ख्याल आते है लेकिन जब कोई बुरा करता है तो उसके प्रति बुरे....मेरे लिए उस वक्त वह पोलिस बाला किसी भगवन से कम नही था,मगर रह-रह कर उन मोहतरमा के प्रति दिल में क्रोध उठ रहा था और man ही man अपनी असंभावित मुलाकात के बारे में सोच-सोचकर उसको दण्डित करने के हजारों ख्यावों को सजा रहा था पता नही चला कब समय व्यतीत हो gaya और कब मेरी आँख लग गयी ,जब मेरी आँख खुली तो भाई जी की आवाज़ कानों में पड़ी वो बैठे थानेदार से बात कर रहे थे ,कुछ जरुरी फोरमल्टी के बाद उन्होंने मुझे ले जाने की अनुमति देदी ,भैया जब मेरे पास आये तो मैंने अपना बही संस्कारिक परिचय देते हुए उनके पैर छूने चाहे लेकिन उन्होंने हमेशा की तरह मुझे बीच में ही रोक दिया और गले लगा लिया |पता नही अपनत्व की वजह से या फिर इतनी परेशानियाँ सहने के बाद किसी व्यक्ति के अपनेपण ने मेरी आँखों में आसू ला दिया ,वो तो ठीक था की भैया ने हसकर मुझे मजाक मजाक में ले लिया अगर कहीं वो सांत्वना देते तो निश्चित तौर पर मेरे अन्दर भरा पड़ा आसुओं का सैलाव एक बाढ़ आई नदी की तरह निकल पड़ता और फिर उसे सम्हालना खुद मेरे लिए ही मुश्किल हो जाता |भैया ने मेरे आसूं को मजाक बना दिया और कहने लगे अरे तू रो रहा है ,इतना बड़ा होकर भी.......हा हा   हा हा हा हा हा ....तुमसे अच्छे तो बच्चे होतें है ...चल आसू पोंछ बरना किसी ने देख लिया तो लोग कहेंगे की इतना बड़ा होकर बच्चो की तरह रोता है,चलो आब घर चलते हैं ?,भैया ने मुझसे पूंछा,मैंने भी स्वीकृति देदी |मगर जैसे ही मैं थाने के बहार निकला वो सिपाही मुझे मिल gaya मैंने भैया को खाने के बारे में बताया ,तो भाई जी उसका धन्यवाद कांटे हुए उसको कुछ पैसे देने लगे उसने हस्ते हुए मना कर दिया आर हस्ते हुए बोला- बहुत कम लोग होते हैं जो पोलिस का खा पातें हैं ,आपने खाया है तो बस पचा लेना और बैसे भी हम पोलिस बाले भला कहाँ किसको पैसा देतें हैं ,जब हम मुफ्त में खाते हैं तो इनको भी खिला दिया |भैया ने उसको धन्यवाद दिया और जाकर बेकरी बाले के लाख मना करने के बाबजूद भी उसको पैसे चुकता कर दिए और हम लोग वापस गाढ़ी में बैठ घर की तरफ चल दिए|मुझे भाई जी के आने के बाद के घटना क्रम में दो बातें बहुत ही अजीब लगीं ,एक तो भाई जी ने किसी को अपना परिचय उस तरह से नही दिया ,जिस तरह के परिचय के वे हकदार होते हैं ,इसके अलावा बेकरी बाले और पोलिस बाले को पैसे देने बलि बात भी मेरे गले नही उतरी|मैंने पहले इनके सवाल खुद ही धुड़ने की कोशिश की परन्तु जब जवाब नही प् सका तो भाई जी से पूंछ ही लिया -भाई जी मुझे समझ नही आया,की आपने इन्हे अपना सम्पूर्ण परिचय क्यूँ नही दिया ?????उन्होंने बड़े ही सॉर्ट में उसका उत्तर दिया- आवस्यकता क्या थी?मैंने कहा -अगर आप बता देते तो हो सकता था मुझे कुछ अंतिम समय की प्रकिया से बचना पड़ता  और दूसरा वो जिस तरह से बात कर रहे ठे उस तरह से बात भी नही कर पते बल्कि आपको लौटकर सम्मान देते?सिर्फ कुछ पलों की परेशानी से बचने के लिए परिचय देना,वेवाकुफी होती है और तब तो वो पागलपण होता है जब आप की सहूलियत के लिए बनी कोई भी प्रक्रिया से आप अपने परिचय के माध्यम से बचना चाहते हों.........जिन्दगी में हमेशा एक बात यद् रखना गलत चलने में बुराई नही है लेकिन गलत होने में बुराई है,ये सरे कानून ,ये सारी प्रक्रियाये हमारे भले के लिए ही हैं,बस इनको हम तब सही समझ पते हैं जब इनका सम्मान करें ....उन्होंने गाड़ी चलते हुए मुझे मेरे सवाल का उत्तर दिया|इतना लम्बा लेक्चर प् कर मेरे man में दुसरे सवाल का उत्तर जानने का बिलकुल ही man नही रह gaya था लेकिन फिर भी मैंने सवाल कर ही दिया -आप तो सम्मान करते हैं लेकिन आपने पोलिस बाले को रूपये क्यूँ दिए ,?मैंने पोलिस बाले को नही बल्कि उस इंसान को रूपये दिए देने की कोशिश की थी जिसने मेरे भाई को खाना खिलाया था न की एक पोलिस बाले को- भाई जी ने बड़ी शालीनता से मुझे ज़वाब दिया |मगर पैसे तो उसने भी नही दिए थे- मैंने फिर सवाल दागातो एस बात से मुझे क्या लेना देना था,और बैसे भी मैंने बेकरी बाले को दे दिए .....लेकिन बेकरी बाला तो लेना ही नही चाहता ता फिर भी -उन्होंने मेरी तरफ देखा और बोले-हरम का खाना हमारी फितरत में न हो तो ही बेहतर हैं,हम इतने सक्षम हैं की अपने पेट को भरने बाले भोजन की कीमत ऐडा कर सकते हैं तो फिर क्यूँ हम मुफ्त का खाए ........और एक बात पोलिस बाला कितना भी मित्र हो उसके एक पैसे का कभी खुद पर क़र्ज़ मत रखना ,क्यूंकि उनकी वर्दी अब वर्दी नही बल्कि गरीबों का खून चूसने बलि बन चुकी है और हम गरीब हितों की रक्षा करने बालें हैं और आपसे भी यही उम्मीद रखतें हैं की आप भी आगें जाकर हमारी रह पर चलते हुए हमसे आगें जायेगें |मेरे man में एक एनी सवाल आया था लेकिन जैसे ही मैंने मुंह खोला-वो समझ गए और बोले- बस अब कोई सवाल नही,बैसे तू एक बात बता क्या खाके आया है पटना से जो सवाल पे सवाल दाग रहा है ............बीटा अभी तू आरक्षक बना नही हैं सिर्फ एग्जाम देकर आया है...बन जा फिर सवाल करना ,,....समझे और हसने लगे.......मगर मेरे अन्दर का चोर jag gaya और में चुपचाप बैठ gaya ,क्यूंकि भैया जिस एग्जाम की बात कर रहे थे मैंने उसे दिया ही नही था .......और अगर ज्यादा सवाल जावव होते तो मुझे भैया को बता पड़ता जो की मेरी सकत में नही था .....एक अनचाहे दर से man को शांत कर मैंने शांत रहने में ही भलाई समझते हुए ......खुद को एक लम्बी चुप्पी साधने पर विचार किया और शांत हो gaya |
मगर man के अन्दर एक गीत बज रहा था जिसके कुछ शव्द थे-

क्या मिला मुझे खोकर सब
क्या पा सका मेरा man
चैन गवाया ,दिल गवाया
क्या मिला तुम्हरा हमारा man

एक नज़र में चाह लिया
एक नज़र में अपना लिया
फिर भी कैसा अजीब मिलन
खली रहा देखो मेरा man

जी.आर.दीक्षित
दाऊ जी 

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