बुधवार, 4 जून 2014

प्रितिविम्व एक परछाई-२

कैद हो गया है आज का मानव खुद की बानायी कांच की दीवारों में ..दर्पणों की सुन्दरता और खिडकियों की नक्काशी ने भले ही भवन की शान-औ-शौकत बाढा दी हो लेकिन उन खिडकियों का उद्देश्य मर चूका था उनके होने का सिर्फ बजूद जिन्दा रह गया था ..हकीकत में उनका उपयोग सिर्फ दिखने भर के लिए था ..........क्या वक़्त था वो भी जन इन खिडकियों से चिड़ियों के चहकने के साथ उषा के समय मस्तानी हवाएं आकर मन को झकझोर देती थी ...कितनी भी बेचेनी हो मन में एक पल के लिए तो लगता था की बस सुकून मिल गया है ....सुबह की सूर्य किरने सीधे आकर बिना रूकावट के घर में प्रवेश कर घर के हर कमरे और आगन में स्वक्चंद अठखेलियाँ खेलकर ही जाती थी  आज तो उन्हें कांच के बने दरवानों के आंगे निवेदन पत्र लिखना होता है अनुमति लेने के लिए उसके बाद परदे से भी इजाजत चाहिए होती है ...बिलकुल सरकारी काम काज की तरह ...यहाँ तो हर बात के लिए कानून होता है मगर सिर्फ उनके लिए जो चुपचाप जुर्म सहते है उनके लिए नही जो क़ानून को धता बता कर अपना काम निकल ले जाते हैं |हमें तो याडी भी नही होगा की आखिरी बार हमारी आँखों ने कब त्रसरेणु के दर्शन किये थे,जब किसी झरोके से या खपरेल में मिली किसी साँस से गुचुप तरीके से निकलकर सामने आता था तो ये कण खूब जोर शोर से चमक कर अपने होने का आभास कराते थे मगर अफसोस अब खरेले मिटने लगी हैं झरोखे भी बंद होने लगे है..तो उनमे से अब क्या दिखेगा  जिका कोई वहुद ही नही है ??तारों से भरा आसमान भी सिर्फ एक ख्याल ही रह गया है |


सुबह सुबह उठकर दर्पण के सामने जाकर ढेर सारे मेक अप से लादकर हम सब अपने अपने दफ्तरों को निकल पड़ते हैं ठीक एक मशीन की तरह एक वक़्त पर शुरू और ख़त्म होकर .....|हमारी अपनी त्वचा भी इस रोज रोज की रंगाई पुताई से तंग आकर चुपचाप अपना प्राक्रतिक रूप त्यागकर समय से पहले ही अपनी रंगत खोने लगती है ..जिससे वक़्त से पहले ही उम्र बढ़ जाने की समस्या बन्ने लगती है ......आखिर वो भी क्या करे दिन भर की थकी हारी रात को खुद को व्यवस्थित महसूस करती है ..तारों तजा महसूस करती है लेकिन उस पर इक ही झटके में दवाद लाड दिया जाता है ...आखिर वो भी तो भोजन मांगती है उसे भी अपने लिए कुछ चाहिए होता है ......आज के केमिकल कॉस्मेटिक भले ही अपने प्रचार में खुद को लाख गुना साबित करले लेकिन हमारी त्वचा उन्हें मंजूरी नही देती है वो तो खुश रहती है तजा हवा से वो उसी में अपना सबकुछ ढून्ढ लेती है ...........|उसे उस ताजगी भरी हवा से ही अपना भर पेट भोजन प्राप्त हो जाता है |
लेकिन कहावत है की इंसान अपनी जिन्दगी और मौत दोनों की कहानी खुद ही लिखता है वाही हम लोग करते जा रहे|हमें अपनी थकन मिटने के लिए अब पार्को की पर निर्भर होना पद रहा है स्वक्ष और शानदार हवा की कमी हम भी महसूर करते हैं इसलिए घरों से निकलने से कतराते हैं ....लेकिन क्या घर से न निकलना इसका हल है ....?? नही बिलुल नही हमने तो अपने जीवन को ही धर्म संकट में डाल दिया है ....|
ये कैद जिसे हम अपना जीवन मान चुके हैं दरअसल ये सिर्फ और सिर्फ हमें जल्द से जल्द मौत तक ले जाने का साधन मात्र हैं क्यूंकि हम एन बंद कांच के घरों में वो सब पा ही नही सकते जो हमें बहार स्वक्छ्न्द वातावरण में मिल सकता है लेकिन कैसी बिडम्बना है की हमें अपनी जिन्दगी के लिए वक़्त नही है .|प्राचीन काल के महान संत जंगलों में विचरण कर हजारों सालों तक जी जाते थे क्यूंकि उन्हें वो सब मिलता था जिसकी जरुरत उनके शारीर को होती थी लेकिन आज हम सब तो सिर्फ ६० से ८० तक सिमट कर रह गए हैं क्यूंकि हमारे जीवन जीने कके तरीके ही नही बदले बल्कि हम भी पूर्ण रूप से बदल गए हैं |
पिछले दिनों एक छोटे से विकार से गुजरना पड़ा था मुझे कारण काम का ओवेरलोड ,..फल्स्वर्रोप डोक्टरों ने मुझे आराम की सलाह दी और हरियाली भरे इलाकों में जाने के लिए कहा,काफी सारे instrction थे  की सुबह नंगे पैर घास पर चलना ..कम से कम पंद्रह मिनट का वोक करना बगेरह बगेरह |मुझे उससे पहले पता तो सब था लेकिन जरुरी नही समझता था क्यूंकि मुझे लगता था ये सब करना जरुरी तो नही है .|लेकिन आज उसकी उपयोगिता मालूम हुयी तो अपनी भूल पर एहसास हो रहा है ..मुझे तो आज समझ आया की अपनी संस्कृति अरण्य क्यूँ थी ...क्यूंकि खुले आसमान के निचे स्वक्चंद रूप से आप ताजी हवा का सेवन करते हुए अपने जीवन को जियें |पहले हमारे यहाँ शिक्षा भी खुले आसमानों के निचे ही हुआ करती थी हमें जीवन जीने के लिए सबसे उत्क्रष्ट शिक्षा वेड पुरानों के पाठ पढाया जाता था  लेकिन जब अंग्रेज आये तो उन्होंने हमारी [पद्दति बदल दी ..हम वेद पुरानो की जगह मैकाले के आधीन हो गए और स्वक्छ्न्द वातावरण को त्याग एक कमरे तक सिमित रह गए जो हमारे मानवीय जीवन के अंत तक जारी रहता है|पश्चिमी देशों में सर्दी अधिक होने की वजह से वहां पढाई खुले में संभव नही होती है इसलिए उन्होंने अपने बच्चों के लिए भी यहाँ भी वाही किया लेकिन हम हिन्दुस्तानी जो ठहरे नक़ल में एक्सपर्ट ...और उनकी नक़ल कर बैठे ..जिससे न केवल हमने अपनी संस्कृति को नुक्सान पहुँचाया बल्कि अपने जीवन को भी सिमित कर लिया|हम भूल गए की आकाश के निचे बैठकर और प्रक्रति के सानिध्य से हमें स्फूर्ति प्राप्त होती है और नवीन विचारों का कायाकल्प होता है लेकिन एक बंद कमरे में तो वाही विचार बार बार आते हैं जो हम देख सुन और पढ़ पाते हैं | एक कहानी वहुत बार सुनी है ,सोचा आपको भी बता दूँ - एक बार अमेरिकियों ने एक कार बनायीं जिसके अन्दर आपको सब सुविधाएँ मिलती थी यानी आपको उसके अन्दर ही फ्रेश होने की व्यवस्था थी ..वो कार एक बार भारत आई और भारतियों ने उसकी कोपी तो करली और कुछ हीनों में हमारे पास एक स्वनिर्मित अमेरिका जैसी कार थी लेकिन समस्या ये थी की हम कार की सभी सुविधाओं का उपयोग नही कर सकते थे क्यूंकि कार में आटोमेटिक हीटर सिस्टम था जो की कार के तापमान को बहार के तापमान से जायदा रखता था यानी भारत के औटन तापमान से ज्यादा कार का तापमान था |फ़लस्वरू[प हमारी यह नक़ल बेकार गयी क्यूंकि हमने उनकी कॉपी तो की मगर ये भूल गए की उन्होंने अपने देश की आवो हवा के हिसाब से बनायीं थी और हमने उनके |
 वहुत से ऐशे किस्से हैं जिनमे हम नकल ता कर लिए मगर अक्ल लगाना थोडा भूल गए और उसका भयंकर परिणाम हमारे सामने हैं |
आज भी अगर किसी को हमारी अरण्य संस्कृति से लगाव बंकि है तो हैं सिर्फ और सिर्फ कवी और दिल के मरीज या फिर ये कहलो मरीज ..क्यूंकि कवि को तो अपनी रचनाओं की सुन्दरता को बनाये रखने के लिए अपनी प्रियतमा के रूप की तुलना प्रक्रति से करनी पड़ती है और मरीजों को अपनी जिन्दगी बचने और अपने दर्द को मिटाने के लिए प्रक्रति का सानिध्य जरुरी होता है |मगर हो सकता है आने बाले वक़्त में दोनों को ही किसी दूसरी तरह के जरिये धुड़ने पड़ेंगे | 

दाऊ जी 

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