मंगलवार, 30 सितंबर 2014

मैं झुकता नही कभी झुकाने से


मैं झुकता नही कभी झुकाने से
न रोया हूँ कभी रुलाने से

उनको तो मर्म बस इसी बात का है ,
न टूट सका मैं ,उनके तोड़ जाने से

सोचकर घबरा जाते हैं वो कभी कभी ,
मैं बच कैसे गया ज़माने से

मेरे चेहरे पर की  ये हलकी मुस्कान,
उनपर कहर बनकर टूट जाती हैं ,

वो आते हैं सामने मेंरे,दर्द देखने को ,
खुद दर्द में डूब जाते है ,मेरे मुस्कुराने से

मैं झुकता नही कभी झुकाने से
न रोया हूँ कभी रुलाने से

एषा नही है कि कोई दर्द नही है ,
मगर क्या फायदा सबको बताने से

रोज मर रहा हूँ तुम्हारी यादों में
जिन्दगी कट रही है इसी बहाने से ,

लेकर कलम दवात  बैठ गया हूँ ,
अपनी बात लिखुंगा सलीके से

लिख रहा हूँ कुछ लब्ज़,अपने दर्द दिल से
कुछ गम तो मिटेगा इसी बहाने से

दाऊ जी 

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