बुधवार, 1 अक्तूबर 2014

मंदिर मस्जिद की गाथाओं

मंदिर मस्जिद की गाथाओं पे,
रोज नया  कुछ होता है
कभी कभी तो इंसान ही इंसानियत का दुश्मन बन जाता है,

राहों पे शोले बिछाने बाला भी कहाँ बच पता हैं ,
खुद ही की लगायी आग में वो खुद ही जल जाता है,

वहुत से मंजर देखें हैं मासूमों की  बर्बादी के हमने भी,
दर्द दिलों में आज भी,मलाल,रोक न पाने का होता है

मैंने राहों में उगते शोलों को पुष्पों को निगलते देखा है ,
स्वर्ण सुन्दरी इस वसुधा पे,इंसानों को कटते देखा है ,

पूँछ रहें हैं लोग हमी से,हमने इनमे क्या खोया,क्या पाया है,
रंग लहू की लालिमा में ,अमन चैन मिटता देखा  है ,

जो द्रश्य भुला नही सकता,इतना भीभत्स्य था वो ,
याद उसे जब करता हूँ,दिल वहुत ही रोता है ,

इस मजहब की आग में ,बस राजनैतिक रोटियां सिंकती हैं
कटता पिटता तो इंसान हैं ,पर लहुलुहान भारत होता है ||

दाऊ जी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...