सोमवार, 29 सितंबर 2014

न जाने क्यूँ अब ग़ज़ल नही बनती ,


 न जाने क्यूँ अब
ग़ज़ल नही बनती ,
उँगलियाँ तो उठती है,
लेकिन कलम नही चलती

दिल के जज्बात,
दिल में रहकर कहर ढाते हैं ,
आँख हो जाती है बोझिल,
मगर नींद नही मिलती ,

पकड कर बैठ ता हूँ
 जब भी कलम दवात ,
हाल-ए-दिल बयाँ करने को
 पंक्तियाँ नही मिलती

 न जाने क्यूँ अब
ग़ज़ल नही बनती ,
उँगलियाँ तो उठती है,
लेकिन कलम नही चलती

सोचता हूँ फिर से बनालूँ
 कोई आशियाना ,रहने को
दीवारें बन जाती हैं ,
मगर वो यादें नही मिलतीं

अक्सर राह चलते
टकरा जाते हैं,कई दिलों बाले ,
बात बढती है मगर
किसी से  बात नही बनती,

दिल के अरमानों को
दिल में दबाकर,रह रहा हूँ
जिन्दगी तो जी रहा ,
पर जिन्दगी नही मिलती

 न जाने क्यूँ अब
ग़ज़ल नही बनती ,
उँगलियाँ तो उठती है,
लेकिन कलम नही चलती

दाऊ जी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...