गुरुवार, 18 सितंबर 2014

कहीं बाढ़, भूकम्प कहीं कुदरत भी है दीवानों में.

कहीं बाढ़, भूकम्प कहीं कुदरत भी है दीवानों में.
गुम हो चले गॉव कितने आते-जाते तूफानों में.

भूखा मरता कहीं आदमी कहीं तरसता रोजी को,
रहने को मजबूर है कितना टूटे पड़े मकानों में.



कटते पेड़, उजड़ती धरती और तबाही लाएंगे,
रह पायेगा कौन बकाया अब इन बीयाबानों में.

घुटके मरता रोज आदमी और करेगा भी तो क्या,
कब तक आग छुपायेगा वो दबे हुए अरमानों में.

आज बला की खामोशी नज़र शहर में आती है,
दंगे फिर भड़के हैं कहीं या मैं हूँ कब्रिस्तानों में.

नेता अपने देश के अब भी सुन्दर सपने बाँट रहे,
हर शाम गरीब डूबता जाता है इनके पैमानों में.

रोज आग भड़काते हैं जाति और मजहब की जो,
कैसे हंस कर गले मिल रहे देखो ये रमजानों में.

तू भी कर उम्मीद खुदी से कोई न आने वाला है,
हिम्मत की अब आस फूंक दे मरी हुई सी जानों में.

पहले भी चरचे थे इसके किस्से आज भी कायम हैं,
अगर जमीं पर होगी जन्नत होगी हिन्दुस्तानों में.

सच्ची ताकत को पहचान वहीँ पायेगा फैज़ 'अली'
अब भी है पुरजोर जो कूबत पहले थी आजानों में.

बीयाबानों = उजड़ा हुआ/सूना, पैमानों = शराब पीने का ग्लास,
रमजानों = इस्लाम में उपवास का महीना, खुदी = स्वयं/अपने,
फैज़ = लाभ/फायदा, पुरजोर = शक्तिशाली,
कूबत = शक्ति/प्रभाव, आजानों = नमाज़ का निमत्रण


A S KHAN

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