गुरुवार, 18 सितंबर 2014

एक बर्के-तबस्सुम है लब पे उस नूर की रंगत क्या कहने,

एक बर्के-तबस्सुम है लब पे उस नूर की रंगत क्या कहने,
मिल जाय कहीं जो किस्मत से उसकी संगत क्या कहने।

पा ले जो तुझे इस आलम में वो क्यों ना हो दीवाना तेरा,
इन्सां क्या फरिस्ता फर्क नहीं उनकी हालत क्या कहने।

आजाओ अगर तुम गुलशन में तो रश्क करेगा हर गुंचा,
वो मुश्के-बदन मेहबूब तेरा रुखसार की रंगत क्या कहने।



रुक जाओ जहाँ तुम राहों में ऐ हुश्न-ओ-अदाओं की मलिका,
दीदार जिसे हो जाय तेरा उस शख्स ही किस्मत क्या कहने।

हम आज भी हैं मुस्ताक तेरे पर तुझको इल्म कहाँ होगा,
ये शाम मुहब्बत की हो अगर फिर रंगे-तबियत क्या कहने।

जब चलती हो लहराके तुम बल्लाह क्या क़यामत होती है,
रुक-रुक कर आये सांस जिसे बीमार की हालात क्या कहने,

मंजूर-ए-नज़र उल्फत जिसकी वो फक्र करेगा किस्मत पर,
क्यों और करे ख्वाहिश कोई तेरे साथ की ज़ीनत क्या कहने।

इंतिखाब का आलम आये अगर, मांगूंगा खुदा से तुझको ही,
तेरे बस्ल की हाजत फ़क्त 'अली' छुट जाए जन्नत क्या कहने।

बर्के-तबस्सुम = बिजली की सी चमक, लब = होंठ, मुश्के-बदन = शरीर की सुगंध, रुखसार = मुख मण्डल (चेहरा), मुस्ताक = आशिक (चाहले वाले),
मंजूर-ए-नज़र = आँखों को स्वीकृति, ज़ीनत = शोभा/रौनक,
इंतिखाब = चुनाव, बस्ल = साथ/मिलन, हाजत = इच्छा, फ़क्त = केवल

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