शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

जीना नहीं है आसान यहां बस रस्म निभानी पड़ती है.

जीना नहीं है आसान यहां बस रस्म निभानी पड़ती है.
कैसे भी हों हालात मगर कुछ बात बनानी पड़ती है.

सच्चे ही दुहाई देते हैं, इन्साफ नहीं जिनको मिलता,
झूटों का क्या बस उनको तो कसम ही खानी पड़ती है.

है बात बहुत ही परदे की, इज़्ज़त पे आंच न आजाये,
ये सोच के घर की बेटी भी गैरों को दिखानी पड़ती है.



नज़रों की हया महफूज ठिकाना ना जब कोई पाती है,
लासानी दौलत तब हमको आँखों में छुपानी पड़ती है.

वो हमसे हों बेजार बहुत, उस आलम की तकलीफ हमें,
उनकी डूबी-डूबी सी मजबूर निगाहों से चुरानी पड़ती है.

अपने तो भूल ही जाते हैं अक्सर हम सारे रंजो-अलम,
उनको खुश करने के लिए मुस्कान भी लानी पड़ती है.

हर दर्द कहाँ होता है कैद लफ्जों के हैं दायरे तंग बहुत,
ख्वाहिशो-पसंद मेहबूब की कुछ बात सुनानी पड़ती है.

तूफ़ान उठाते जज्बों को जब रोक नहीं सकते दिल में,
उस दर्द की कीमत ज्यादा तो आँखों को चुकानी पड़ती है.

कितनी भी नज़र उठाएं हम पर पाँवं जमीं पर ही होंगे,
पानी पे नहीं चलती दुनिया मिटटी भी बिछानी पड़ती है.

कुदरत की कारिस्तानी में क्यों नुक्श निकालेगा कोई?
अपने जो दिलों में मैल जमी खुद को ही हटानी पड़ती है.

क्यों हमको टीस लगी होने पढ़कर ये हाले-दिल अपना,
मालूम 'अली' अब ये हमको तेरी सी कहानी पड़ती है.

हया = शर्म, महफूज = सुरक्षित, लासानी =अद्वतीय, बेजार = निराश, रंजो-अलम = दुःख-दर्द/कष्ट, लफ्जों = शब्दों, ख्वाहिशो-पसंद = इच्छा और पसन्द, जज्बों = भावनाओं,
कारिस्तानी = कार्यप्रणाली,

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