शनिवार, 15 नवंबर 2014

तुम खुद ही तरन्नुम हो, तुम खुद ही तबस्सुम हो.


तुम खुद ही तरन्नुम हो, तुम खुद ही तबस्सुम हो.
नाज़ुक सी पत्तियॉं पर बिखरी हुई सी शबनम हो.

हम मुन्तजिर हैं बेशक, मगर हैं तो कश्मकश में,
क्यों है मुश्किल यकीन तेरा तुम ला-ओ-नहम हो.

तेरी बेरुखी का आलम कोई क्या कहेगा हम से,
कैसे सजेगा जहां जब तुम खुद अभी दरहम हो.

मेरा सबब-ए-तलाश खुद नहीं मालूम मुझे मगर,
इन्सां मिले दुनिया में, न फकत दैर-ओ-हरम हो.

मैं मौजूद दिल में रहूँ उनके वो रहे मेरे ख्यालों में,
नज़रे न मिलें बेशक मगर, जज्बाती-मरासिम हो.

हों साफ़ सूरते-आइना अपने जज्बात-ओ-तहरीर,
झांके दिलों में लज्जत न कोई पेच-ओ-खम हो.

तस्बीर-निहां अब तक दिल में भी है नज़रों में भी,
हल्के न दर्दे-दिल हों कभी न तस्बीर मुब्हम हो.

सूरते-दूद कभी दीदार हुआ, तस्ब्बीर का गर तेरी,
कुछ भी रहे हासिल मगर वो तश्कीन-फ़राहम हो,

दीगर न कोई राह गरज एक तू ही मेरी मंजिल है,
होगा सफर आसां 'अली', इल्तिफात-ए-पैहम हो.

तरन्नुम = संगीत लय, तबस्सुम = होटों की चमक, शबनम = औस, मुन्तजिर = प्रतीक्षा में, कश्मकश = संसय/बेचैनी, ला-ओ-नहम = नहीं और हाँ, दरहम = अस्तव्यस्त/बिखरी हुई, दैरो-हरम = चर्च और मस्जिद, जज्बाती-मरासिम = भावनात्मक संबंध, सूरते-आइना = सीसे की तरह साफ़, जज्बात-ओ-तहरीर = भावना और लिखित बयान, लज्जत = आनंद/स्वाद, पेचोखम = जटिलता, तस्बीर-निहां = छुपा हुआ चित्र, मुब्हम = अस्पष्ट, सूरते-दूद = धुएं की तरह/धुंधला, तश्कीन-फ़राहम = सन्तुष्टि पंहुचाने वाला, इल्तिफात-ए-पैहम = लगाव के साथ

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