मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

सुप्रभात मित्रों पेश हैं एक रचना-: '' तुम्हारे केशुँओं से छिटककर निकलती वारिशें, आज भी हम तक ये हवायें पहुँचा रही हैं, तुम्हारी नर्म नाजुक हथेलियों की छुअन के अहसास से, आज भी मेरी कनपटियाँ गर्मा रही हैं महक रहा है आज भी कमरा मेरा तुम्हारी खुशबु से, उस महक से पुष्प-लता भी शर्मा रही है, था तुम्हारी अंगडाईयों में जो मादपन,हमें बाँधे हुए, तुम्हारे विस्तर से निकलकर वो मुझपे खुमारी सी छाती जा रही हैं, तिरछे नैन तुम्हारे,वो चितवन से छाँकना, मधुर मधुर वाणी से,कर्णों में गरल सा घोलना, चलकर वो चाल तिरछी सी,दिलो पे डोलना, देखकर अक्श अपना ,हौले-हौले से मुस्काना, खडा हूँ सामने आईने के,देख रहा हँ अक्श अपना, मगर नजाने क्युँ,उसमें नज़र तस्वीर तेरी आ रही हैं, जानता हूँ तुम इस वक्त मेरे पास नही हो, मगर ये सब मुझे तुम्हारा अहसास द्िला रही हैं, मैं मानू या न मानू,तुम मेरी रग-रग,मेरी हर साँस में बसी हो, तभी तो दूर होकर भी मुझको पास नज़र आ रही हो, तुम कहती थी मैं निष्ठुर हूँ,मेरे पास ह्रदय नही, देखो आज तुम्हारी कितनी याद आ रही हैं, ।। दाऊ जी

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अंतर्द्वंद

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