शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

जीना मुहाल हो गया इबादतों के शोर से,

जीना मुहाल हो गया इबादतों के शोर से,
कायम है एक बहशत जैसे चारों ओर से.

क्या मांगते हैं रब से ये हमको पता नहीं,
कुछ तो होगा जो चीखते हैं जोर-जोर से.

दौर तकरीरों का कैसा जनूनी-फितूर है,
माँ चीखती है दर्द से न सुनता हूँ गौर से.

नंगे हैं मेरे कान मगर हैं भौंपू सजे हुए,
कहीं फट न जाएँ कभी ये इतने शोर से.

एक होड़ सी लगी है मानो शोर मचाएं,
घण्टा बजे या लगाएं सदा जोर-जोर से.

इंसान की तरह कोई करता न इबादत,
हैं शेखो-बिराहमन के कोहराम घोर से.

कैसे पढेंगे बच्चे इन हालात में पड़कर,
कुछ सुन सकेंगे तब ही न पूछेंगे और से.

मुनकिर नहीं हूँ मैं अदब दिल में है मेरे,
याद करता हूँ उसे न चीखता हूँ जोर से.

हरेक नफ़्स हर धड़कन का इल्म है उसे,
न बोलूँ मैं फिर भी वो सुनता है गौर से.

आते नहीं हैं सामने पर जानता हूँ खूब,
आज़िज़ हुआ 'अली' हूँ सरगोशी दौर से,

मुहाल = कठिन/मुश्किल, इबादतों = पूजा/प्रार्थना, बहसत = डर, तकरीरों = उपदेशों/भाषणों, जनूनी-फितूर = उत्तेजक भ्रम, भौपू = लाउड स्पीकर, शेखो-बिराहमन = मुल्ला और पंडित (धर्म प्रचारक), मुनकिर = नास्तिक, नफ़्स = साँस, आज़िज़ = दुखी/परेशान, सरगोशी = कानाफूँसी.

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