मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

इश्क कभी मरता नही -1

बड़ा ही अजीब गाँव था ये पीछे नदी आंगे से रास्ता नही।बस सिर्फ एक पगडण्डीं। गाँव से कुछ दूरी पर गाँव तक जाने बाली पगडण्डी के पास सबसे पुराने वृक्षो में शुमार वो पीपल का पेड़।जिसकी भयाभह आकृति ने वर्षों तक एक जगह खडे रहकर कई मौषमों के बीच खुद को सलामत बनाये रखा था।एक वहुत बडे,विकराल रुप के साथ विधमान वक्त की तमाम चोटो के निशान अपने तने पर लिए शाँत लहजे में वहाँ खड़ा हुआ था।जहाँ रोज संध्या होने के बाद पास से गुजरना तो दूर वहाँ की पगडण्डीं से भी गुजरना खतरनाक माना जाता था। वर्षो पुरानी दंत कथाओं ने इस 21 वी सदी के अधुनिक युग में भी अंधविश्वास बनाये रखा हुआ था ये शायद डर का कारोबार था जो कुछ लोगों के व्यापार को बढावा देने के लिए मशहूर था।आज कल दुनियाँ में सिर्फ डर का व्यापार ही सफल था कल तक मैं भी उसे सिर्फ डर का कारोबार समझकर ही नजरांदाज करता रहा था।21 वी सदी के इस युग में जहाँ लगभग भारत के अस्सी प्रतिशत गाँव तक परिवहन और संचार के साधनो की पहुँच है लेकिन ये गाँव आज भी लगभग अछूता सा था ।गाँव में बिजली के खम्बे तो थे मगर उन पर तारें नही थी। मोबाईल कुछैक लोगों के पास थे,परिवहन के साधन थे मगर रास्ते नही थे ।मुझे वहुत आश्चर्य हुआ उस गाँव की हालत देखकर और आश्चचर्य होना भी बनता था क्युँकि इस प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री का गृह जिला है ये और उनके गृह नगर सैफई से मुश्किल से 20 किमी के दायरे में आता है ये गाँव फिर भी विकास से दूर?? मुझे एक पल को लगा कि निश्चित तौर पर शासन की इस गाँव से कोई निजी दुश्मनी रही होगी जिसकी वजह से ये गाँव उपेक्षित हैं।जब वहाँ के लोगों से जानने का प्रयास किया तो कहानी कुछ अलग थी। यहाँ के लोग बताते थे कि गाँव और गाँव के विकास के बीच में ये पेड़ रुकावट बना हुआ था ।अब इसकी जंडे इतनी दूर तक फैल चुकीं थी की गाँव तक जाने बाली पगडंण्डी पर भी इसकी जड़े नजर आती थी।कहाँ जाता है कि यहाँ कई प्रयास किये गये थे सड़क बनाने के मगर पेड को वहाँ से हटाये बिना सड़क बनाना भी सम्भव नही था।क्युँकि पेड के इस तरफ नहर और दूसरी तरफ वर्षों पुराना तालाब था जो नहर बन्द होने के बाद सिचाई के उपयोग में लाया जाता था और इनके बीच में करीबन 600 वर्ग मीटर के क्षेत्र में फैला हुआ वो वृक्ष।और जिसने भी वो वृक्ष काटने का प्रयास किया वो आज तक सही सलामत नही बचा ।गाँव के वुजुर्गों के अनसार उस वृक्ष पर कोई प्रेतात्मा बास करती थी जो नित्य रात्रि को भ्रमण करते पायी जाती थी।वहुत सारे लोग उसको देख चके थे।गाँव के कई लोग उसकी वजह से ही आज इस दुनियाँ में नही थे वहुत सारे परिवारों को वहाँ से बेदखल होना पड़ा था।और कई परिवार मिट चुके थे।अगर घटनाओं को सही मान लेता तो कहा भी जा सकता था कि यहाँ हो सकता है प्रेत हो ।लेकिन अगर उसकी वजह से तबाही हो रही थी तो गाँव के अन्य घरों में वर्षों से कोई अनहोनी नही हुई थी।गाँव के अन्दर वहुत सारे खण्डहर थे जिनकी भव्यता देख ये कहा जा सकता था कि गुजरे जमाने के किसी बडी शख्सियत की रिहायश रहे होंगे।मगर अब वो सिर्फ खण्डहर थे और उनमें अब कोई नही रहता था। न चाहते हुए भी ,न मन करते हुए भी मेरी सहानभूति उस गाँव के प्रति कुछ ज्यादा ही हो गई थी।मै भूत प्रेत में यकीन तो करता था मगर इतना नही की उन्हें गाँव के विनाश का आधार ही मान लूँ।मेरा मत तो ये था कि कुछ भटकी हुई आत्मायें होती जरुर है ,वो इंसानो को परेशानी भी पैदा करती हैं मगर कभी रुकावट नही बनती हैं। मैंरा मन पिघल गया ।मैंने तय किया कि सरकार भले ही डरती हो मगर हम नही हम इस ग्राम को एक तय रास्ता जरुर देगें।हो सकता तो बिजली भी पहुँचायेगें। हमने अपने सेकेट्री को इस गाँव के नाम से एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने और उसे दो दिन बाद होने बाली संस्था की मींटिग में रखने के लिए कह कर ।वहाँ के जिलाधिकारी से मिलने को निकल गया।जहाँ पहुँचकर मेरा विस्मित होना बाजिब हो गया था क्युँकि पिछले 19 वर्षों में गाँव के लिए करीबन 11 करोण रुपये जारी हो चुका था।मगर उसके लिए अब तक कोई टेन्डर ही नही डाला गया था।जो टेन्डर डले भी थे वो भी ठेकेदार काम छोड़ चुके थे।मैंने जिलाधिकारी से उस सम्बन्ध में अपना पक्ष रखते हुए लिखित तौर पर उस ग्राम के हित में जारी किए गये सारे रुपयों का गाँव के विकास में लगाने का अश्वासन दिया।11 करोण कोई छोटी रकम नही थी ।इतनी रकम में तो सारा गाँव एक शहर बन सकता था। मगर सिर्फ एक सड़क न होने की वजह से ये रुपये ग्राम हित में खर्च नही हो पा रहे थे।ये कोई आम रास्ता नही थी अगर ये रास्ता प्रस्तावित रास्ते पर ही बनता है तो पूरे 13 गाँव सीधे तौर पर सड़क मार्ग से न केवल जुड रहे थे बल्कि ईटावा से उस ग्राम तक की दूरी में 20 किमी का फर्क आना तय था। दाऊ जी

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