मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

मैं समन्दर हूँ मगर प्यासा तेरी मुहोब्बत का,

मैं समन्दर हूँ मगर प्यासा तेरी मुहोब्बत का,
लबालब हूँ मगर,बाँकि तुम्हारी चाहतों का,

लाख बरसते रहें ये मेघ काले से घनघोर निरंतर
मगर नही हैं सकत उनमें मेरा अधूरापन भरने का ,

मैं तेरे पास आ जाऊं ,मगर फिर सोचता हूँ
मजा ही कुछ और होता है मुहोब्बत में तरसने का ,

मेरे खारे पण पे है एतराज जिस जमाने को
भूल जाता है मैंने उसके आसुओं को सम्हाला है

मैं छोड़ जाऊं ये जमाना, वो जगह ,वो ठिकाना
मगर इंतजार रहता है हमको  तेरे लौट आने का ,

मैं समन्दर हूँ मगर प्यासा तेरी मुहोब्बत का,
लबालब हूँ मगर,बाँकि तुम्हारी चाहतों का,

दाऊ जी



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