सोमवार, 10 अगस्त 2015

सहारा है

हो गये समंदर भी पराये,नदियों पे उनका डेरा है, मेरा तो रब भी न रहा,बस परछाई का सहारा हैं। फाड़ कर धरती,उगा लाया था सोना, छीन लिया हमसे,उस पर कहाँ हक हमारा हैं। बहती हैं नदियाँ वैसे तो मेरी भी वस्ती से, मगर कहाँ हक मेरा,हमें तो गंदे नालों का सहारा है। दाऊ जी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...