शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

बात दिल की भी करेंगे सहर होने दे ज़रा

बात दिल की भी करेंगे सहर होने दे ज़रा
,
देख निकलेगा आफताब महर होने दे ज़रा.

रकीबों के जहन में बनी तस्बीरे-मुहब्बत,
आएंगे रुबरू तो यकीनन सहर होने दे ज़रा.

हम तेरी शान में कशीदे भी पढ़ेंगे मेहबूब,
मेरी ग़ज़लों में रदीफ़-ओ-बहर होने दे ज़रा.

यही जज्बा है जो बैचैन किये रहता है हमें,
है कमी क्या हम पर भी नज़र होने दे ज़रा।

खुदा करे तेरा हर ख्वाब हो हसीं तेरी तरह,
फकीरों की दुआ का भी असर होने दे ज़रा।

आज आलम ये, पूछ रहे हैं खुद से ही हम,
कल के ज़र्रों को शम्शो-कमर होने दे ज़रा।

तलाशे-मसर्रत है चल जानिबे-बज़्मे-यारां,
कम मगर ये तन्हाई का कहर होने दे ज़रा.

बेखुद सा एक शख्स दिख जाता है अक्सर,
वो बाकई 'अली' है क्या? खबर होने दे ज़रा.

सहर = प्रभात, आफताब = सूर्य, महर = कृपा, रकीबों = दुश्मनों, रुबरू = आमने-सामने, कशीदे = प्रसंशा-गान, रदीफ़-ओ-बहर = ग़ज़ल लेखन के नियम, शम्शो-कमर = सूरज और चाँद, तलाशे-मसर्रत = ख़ुशी ढूंढना, जानिबे-बज़्मे-यारां = मित्रों की सभा की ओर, बेखुद = खोया-खोया/निराश, बाकई = वास्तव में.

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