पहले खिलते थे अब खिलाये जाते हैं,
गुल भी मजबूर हैं मुस्कराये जाते हैं.
तुम सियासत से हो बहुत दूर मगर,
चंद लम्हात तुम्हें अपनी तरफ लाते हैं,
अब गया वक्त सदाकत-ओ-सादगी का,
आज के नेता बहुत रूप बदल आते हैं.
ज़माना अब हमारा है हकूमत अपनी,
बात मानी न गर हम काट भी खाते हैं.
हरेक सूरत है नाकाम हकूमत में आदमी,
इसके बस का नहीं इसलिए हम आते हैं.
तुम हो हारे-थके जिंदगी से अवामो-आम,
न उनको नेता कह हमारे नाम से बुलाते हैं.
भूख मजबूर करती है भटकते हैं हम वरना,
अपनी बिरादरी के आदमी भी पाये जाते हैं.
बेहतर है अपनी नस्ल कि कुत्ते हैं आज भी,
कुछ आदमी वर्ना अब कुत्ते कहाये जाते हैं.
देते हैं ज़ख्म छुपके जो हम हैं नहीं उनमें,
सरे-महफ़िल 'अली' मरहम लगाने आते हैं.
सियासत = राजनीति, चंद लम्हात = कुछ क्षण, सदाकत-ओ-सादगी = सत्य और ईमानदारी, अवामो-आम = साधारण जनता, सरे-महफ़िल = प्रतक्ष्य रूप से.
गुल भी मजबूर हैं मुस्कराये जाते हैं.
तुम सियासत से हो बहुत दूर मगर,
चंद लम्हात तुम्हें अपनी तरफ लाते हैं,
अब गया वक्त सदाकत-ओ-सादगी का,
आज के नेता बहुत रूप बदल आते हैं.
ज़माना अब हमारा है हकूमत अपनी,
बात मानी न गर हम काट भी खाते हैं.
हरेक सूरत है नाकाम हकूमत में आदमी,
इसके बस का नहीं इसलिए हम आते हैं.
तुम हो हारे-थके जिंदगी से अवामो-आम,
न उनको नेता कह हमारे नाम से बुलाते हैं.
भूख मजबूर करती है भटकते हैं हम वरना,
अपनी बिरादरी के आदमी भी पाये जाते हैं.
बेहतर है अपनी नस्ल कि कुत्ते हैं आज भी,
कुछ आदमी वर्ना अब कुत्ते कहाये जाते हैं.
देते हैं ज़ख्म छुपके जो हम हैं नहीं उनमें,
सरे-महफ़िल 'अली' मरहम लगाने आते हैं.
सियासत = राजनीति, चंद लम्हात = कुछ क्षण, सदाकत-ओ-सादगी = सत्य और ईमानदारी, अवामो-आम = साधारण जनता, सरे-महफ़िल = प्रतक्ष्य रूप से.
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