मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

निगहवाने-वतन अब बंद आँखें करके चलते हैं,

निगहवाने-वतन अब बंद आँखें करके चलते हैं,
कुछ न देखना है इन्हें बंद आँखें करके चलते हैं.

नज़ारे जो ये देखना चाहते हैं नहीं अब सरे-आम,
वो इनके मुन्तजिर हैं बंद आँखें करके चलते हैं.

पेट बातों से अबतक गरीबों का भर नहीं पाये हैं,
भूखा-नंगा न दिखे कोई बंद आँखें करके चलते हैं.

एक दिन यही मजलूम-ओ-गरीब इनके खुदा हुए,
दिल में है तास्सुफ़ मगर बंद आँखें करके चलते हैं.

दस्तबस्ता थे जिनके सामने कल तक यही रहबर,
आज उनकी ही राहों से बंद आँखें करके चलते हैं

दीनो-ईमान से क्या? और क्या मुल्को-अवाम से,
पहुंचे हैं आसमां तो अब बंद आँखें करके चलते हैं.

सारे-जहां की रोनकों का बखूबी इल्म हो चुका इन्हें,
बात जब अपने वतन की बंद आँखें करके चलते है.

न देखेंगे न दिखाएंगे सच्चाई का कोई पहलू मगर,
टिप्पड़ीं हर जगह 'अली', बंद आँखें करके चलते हैं.

निगहवाने-वतन = देश की देखभाल करने वाले, मुन्तजिर = जिसकी प्रतीक्षा हो, मजलूम-ओ-गरीब = सताया हुआ और दरिद्र, तास्सुफ़ = भेद-भाव/चिड़, दस्तबस्ता = हाथ जोड़ना, रहबर = मार्ग-दर्शक, दीनो-ईमान = धर्म और कर्तव्य, मुल्को-अवाम = देश और जनता।

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