गुरुवार, 19 नवंबर 2015

अहसास हो रहा कुछ न कुछ तो जरूर होनेवाला है,

अहसास हो रहा कुछ न कुछ तो जरूर होनेवाला है,
आजकल मुल्क में कवि सम्मेलनों का बोलवाला है.

आते-जाते जलजले-ओ-कांपते जमीनो-आसमान,
इशारा ही कर रहे हैं उसका शायद जो होने वाला है.

ये रस्म-अदायगी ही है फकत वापसी सम्मानों की,
एक बात तो जाहिर है कौन उजला है कौन काला है.

अक्ल से दूर सबब तू शायर है कवि है यूं भी आधा है.
तेरा क्योंकर दखल सियासत में जो मचता बाबाला है.

कहाँ वो ओहदेदार और कहाँ तू जमीं पर बैठने वाला,
घिस-घिस कलम मर जा लगता है कोई सुनने वाला है.

लगे हैं सब कशीदे पढ़ने-लिखने फकत शान में उनकी,
बखूबी जानते यकीनन हाथ में किसके तर-निबाला है.

कलमकारों का तमाशा ये पहली बार देखा है वगरना,
ये हाथ में तीर है, तलवार है, समझ ले ये ही भाला है.

अभी तो बहती गंगा में लगाले डुबकियां तू भी 'अली'
कौन मुश्किल से पाया था न जो फिर मिलने बाला है.

जलजले = भूकम्प, रस्म-अदायगी = दिखाबे की प्रक्रिया, दखल = हस्तक्षेप, सियासत = राजनीति, ओहदेदार = उच्च पदों पर आसीन, कशीदे = प्रसंशा गान, तर-निबाला = चुपड़ी-रोटी (अत्यधिक शक्ति), कलमकारों = लेखक/साहित्यकार।



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