गुरुवार, 19 नवंबर 2015

ढलती हुयी जिंदगी की ये शाम क्या करे

ढलती हुई इस जिंदगी की शाम क्या करें,
समझे न जब कि कोई तो काम क्या करें।

नज़र में आगया जिनकी वो मेहरबां होंगे,
मुझको नज़र जो आये इल्जाम क्या करें।

यादें तो दोस्तों की दिलों में उतरेंगी बहुत,
भूले हैं जिनको वो बस्ले-शाम क्या करें।

फक्रे-खुदी, शुक्रे-खुदा हूँ अब भी जमीन पे,
दुनिया न दे रहने जिन्हें इंसान क्या करें।

रंग कोई निहाँ नहीं सब कुछ तो है जाहिर,
फिर भी न तुलें पूरे तो मीजान क्या करें।

जीना तो हक़ है उनका जो जीते हैं जिंदगी,
नफ़्स-दर-नफ़्स का मिला इनाम क्या करें।

है रंगीं-हयात मयस्सर जिन्हें डरें वफ़ात से,
जो हैं आग़ोशे-मर्ग में वो बेजान क्या करें।

जलील-ओ-ख्वार किया है दौलत ने बहुत,
न किसी काम आया 'अली' नाम क्या करें।

बस्ले-शाम = मिलान संध्या, फक्रे-खुदी = स्वयं पर घमंड होना, निहाँ = ढंका हुआ/अदृश्य, मीजान = तराजू, नफ़्स-दर-नफ़्स = एक सांस के बाद दूसरी, रंगीं-हयात = खुशहाल जीवन, मयस्सर = उपलब्ध, वफ़ात = मृत्यु, आग़ोशे-मर्ग = मृत्यु की गोद/निराश, ज़लील-ओ-ख्वार = अपमानित और दयनीय।


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