आसां तो न है राहे-इश्क मगर,
हमको भी मिलेगी कहीं न कहीं।
जब चल ही पड़े तो डर कैसा?
मंजिल भी मिलेगी कहीं न कहीं।
तुम इतने खिंचे, हम इतने खिंचे,
ये हद भी तो होगी कहीं न कहीं।
क्यों तुमको मनाएं फिक्र करें,
तुमको भी होगी कहीं न कहीं।
मासूक तो लाखोंं अब भी हैं,
तकदीर लड़ेगी कहीं न कहीं।
कहने को कह लो कुछ भी 'अली'
ये कसक मिलेगी कहीं न कहीं।
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