बुधवार, 25 नवंबर 2015

पता नही वह हवा कहाँ हो

पता नही वह हवा कहाँ हो
पता नही वह सदा कहाँ हो
मैंने जिसके गीत लिखे थे
पता नही वो अदा कहाँ हो।

मेरी आँखों में झरने थे
दिल में थे पर उसके थे
कल कल करती सी लहरें थीं
नभ में बादल उसके थे।

सिक्त बदन में अंगड़ाती सी
पता नही वो हया कहाँ हो
मन मंदिर में बसी हुई
वो मेरी खुदा कहाँ हो

उसका होंना या न होना
मुझसे ज्यादा किसे पता है
पल पल उसको महसूस करूँ
रहती वो साथ सदा है

रूप सलोना,रंग रंगीला
मतवाली सी उसकी चाल
मैंने उसमें सुधबुध खो दी
इसमें मेरी कहाँ खता है।

शायद उसके भी शिकवे हों
वह भी मुझ पर फिदा कहीं हो
रोज शाम को राह ताकती
वो बेबस लाचार सी हवा कहाँ हो।

मेरी इतनी रचनाओं में
समा न पाई वह क्यों अब तक
उसमें कुछ तो खूबी थी
जो पूर्ण लिख सका न अब तक

रोज लिखूंगा गीत तुम्हारे
बता सकें जो प्रीत हमारी
तुम गज़लों में ढल जाना
बन जाना बस मीत हमारी

एक दिवस की धुप छाँव सी
वह भी मुझसे जुदा नही ही
रहे सदा वो साथ सहारे
उसका प्यारा चाँद जहाँ हों


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