नसीब बन गया था संगे-बुत, ये मेरी कमी थी,
बर्न इस सर को फोड़ने, पत्थरों की कमी थी?
आइना दिल का मेरे टूटता क्योंकर जब तेरी
आँखों में अश्क-ओ-दामन में कंकरों की कमी थी।
मैंने देखा नहीं रोता हुआ तुझको कभी जालिम,
फिर क्यों तेरी आँखों में, एक खामोश नमी थी।
डूब तो यूं भी चुके थे नाकामिये-उल्फत से हम,
ये मानते हैं फिर भी, कुछ हम में ही कमी थी।
कदम रक्खा किये सम्हल के जिस जगह पे हम,
देखा जो नीचे पांव के, कागज़ की जमीं थी।
आँखों में अश्क थे, न पेशानी पे बल अपनी,
बस मातम-ए-उल्फत की सीने में गमी थी।
मुश्क-ए-महबूबे-बदन तलाशता था तू 'अली',
वो और थी कहाँ? बस तेरी सांसों में रमी थी।
संगे-बुत = कठोर हृदय प्रेमी (पत्थर की मूर्ती), नाकामिये-उल्फत = प्रेम की असफलता, पेशानी = मुख-मंडल, मातम-ए-उल्फत = प्रेम का शोक, मुश्क-ए-महबूबे-बदन = प्रेमिका के शरीर की सुगंध।
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