गुरुवार, 25 अगस्त 2016

महेंद्र और मूमल -प्रेम में भृम और परिहास की त्रासदी


महेंद्र सिंध के अमरकोट का राजा था,
मूमल जैसलमेर की लुद्रवा की राजकुमारी.

महेंद्र राजा भी नहीं, राजकुमार ही था,
क्योंकि तबतक उसके पिता राणा वीसलदेव जीवित थे.
इधर मूमल राजकुमारी होकर भी रानी बन चुकी थी.
राजकुमारी कुमारी थी और राजकुमार की सात रानियाँ.
यह राजतंत्र के लिए अप्रत्याशित नहीं था.

एक दिन महेंद्र अपने बहनोई हमीर,
जो गुजरात के राजा या राजकुमार थे,
के साथ आखेट के लिए जैसलमेर तक पहुँच गए
और हिरण के साथ लुद्रवा तक.

कहानी के युग में लुद्रवा के पास एक मरुनदी भी थी,
नाम था- काक.
हिरण ने जल में छलाँग लगा दी.
उन्हें हिरण पर ही करुणा आ गई
या कि अब हृदय का हिरण बनना लिखा था,
उसे छोड़ दिया.

क्या जाने,
प्रकृति का प्रभाव था या लुद्रवा की संस्कृति का स्वभाव ही,
हमीर और महेंद्र मंत्रमुग्ध हो गए.
मरुभूमि में हरियाली थी,
हरियाली में सौंदर्य था,
सौंदर्य में प्रीति थी.
सब में शायद मूमल की छाया या छवि थी,
अव्यक्त या अज्ञात रूप में.

तभी दृश्य के परिदृश्य में
मूमल के महल का सौंदर्य दिखा,
दोनों उस ओर बढ़ चले.
शायद मूमल ने भी किसी प्राचीर या गवाक्ष से दोनों को देख लिया,
दोनों के वेश राजोचित थे.

सेवकों से परिचय पुछवाया,
सत्कार सहित बुलवाया.
महल बहुत भव्य व भिन्न था.
फर्श दर्पण सा दिखता,
छत आकाश सा.
कहीं शेर बैठा दिखता,
तो कहीं अजगर लिपटा हुआ.

हमीर को लगा कि सब माया जगत् है,
क्या जाने कोई जादूगरनी हो,
पीछे ठिठक गए.

महेंद्र बढ़ते गए,
साहस के साथ, विस्मय के साथ.
और जब मूमल से मिले,
तो जाना कि महल और माहौल का सौंदर्य तो कुछ भी नहीं.
लोग तो कहते हैं कि
वह आईना देखती, तो काँच टूट जाता,
संगमरमर पर पाँव रखती, वह जरा मोम हो जाता.

अभिभूत होना या तो विस्मित होना है,
या अनुगृहीत होना या फिर प्रीति में होना.
महेंद्र के साथ तीनों घटित हो गए.

सिंधु की बहती धारा के देश का राजकुमार
काक की विच्छिन्न लहरों की धरती पर मुग्ध हुआ है,
यह मूमल को सुखद लगा.
वह भी मुग्ध हो गई.

जब महेंद्र अमरकोट लौटा,
तो बस वही लौटा, उसका मन नहीं.
सात रानियाँ थीं, कोई बाँध न सकी.

राज में जो सबसे तेज चलने वाला और दूर तक जाने वाला ऊँट था,
उसका नाम था- चीतल.
उसकी तब प्रसिद्धि वही थी,
जो घोड़ों में चेतक की थी.

अमरकोट से जैसलमेर की दूरी सौ कोस थी,
आज का कोई तीन सौ किलो मीटर.
कहते हैं, महेंद्र रात भर में ही वहाँ पहुँच गया,
पहुँच ही नहीं गया, बल्कि मिलकर सुबह तक लौट भी आया.
अविश्वसनीयता की सीमा तक ले जाना ही तब कहानियों को लोकगाथा बनाता था।
कहानी तो कहती है कि यह फिर रोज की कहानी बन गया।

रानियों को भनक लगी,
तो चीतल ऊँट के पैर तुड़वा दिये.
महेंद्र ने दूसरी ऊँटनी ली, नाम था टोरडी.
पर वह कुछ यूँ चली या भागी कि
जैसलमेर की जगह बाड़मेर ले गई.
बहुत भूल भटक कर रास्ता पूछ-पूछ कर
जब महेन्द्र लुद्रवा पहुंचा
तब तक रात का तीसरा पहर बीत चुका था।
मूमल उसका इंतजार कर सो चुकी थी,
उसके कक्ष में दीया जल रहा था।

उस दिन मूमल की बहन सुमल भी मेड़ी में आई थी,
दोनों की बातें करते-करते आंख लग गयी थी।
सहेलियों के साथ दोनों बहनों ने देर रात तक खेल खेले थे,
सुमल ने खेल में पुरुषों के कपड़े पहन पुरुष का अभिनय किया था
और वह बातें करती-करती पुरुष के कपड़ों में ही मूमल के पलंग पर उसके साथ सो गयी।

महेन्द्र सीढियां चढ़ जैसे ही मूमल के कक्ष में घुसा और
देखा कि मूमल तो किसी पुरुष के साथ सो रही है।
यह दृश्य देखते ही महेन्द्र को तो लगा जैसे वज्रपात हो गया हो।
उसके हाथ में पकड़ा चाबुक वही गिर पड़ा
और वह जिन पैरों से आया था
उन्हीं से चुपचाप बिना किसी को कुछ कहे वापस अमरकोट लौट आया।

सात रानियों वाला पुरुष भी स्त्री से तो एकनिष्ठता ही चाहता है,
वह तो राजा था.
सुबह आंख खुलते ही मूमल की दृष्टि जैसे ही महेन्द्र के हाथ से छूटे चाबुक पर पड़ी,
वह समझ गयी कि महेन्द्र आया था,
पर शायद किसी बात से नाराज होकर चला गया।
संदेह हुआ कि संदेह का कारण कहीं सुमल का होना सोना तो नहीं.
अँधेरे बहुतों को अँधेरे में रखते और डालते रहे हैं।

कई दिनों तक मूमल महेन्द्र का इंतजार करती रही कि
वो आएगा
और
जब आएगा तो सारी गलतफहमियाँ दूर हो जाएंगी,
पर महेन्द्र नहीं आया।

मूमल उसके वियोग में फीकी पड़ गई,
उसने श्रृंगार छोड़ दिया, भोजन छोड़ दिया,
उसकी कंचन जैसी काया काली पड़ने लगी।

उसने महेन्द्र को कई पत्र लिखे,
पर महेन्द्र की रानियों ने उस तक पहुंचने ही नहीं दी।
शायद उस जमाने में राजा से अधिक प्रभावशाली रानियाँ होती थीं.

आखिर मूमल ने एक ढोली (गायक) को बुला महेन्द्र के पास भेजा,
पर उसे भी महेन्द्र से नहीं मिलने दिया गया।
वह किसी तरह महेन्द्र के महल के पास पहुंचने में सफल हो गया और
गीत-गीत में ही मूमल की दशा और उसका संदेशा बता दिया.

महेन्द्र ने गायक को कहा कि
मूमल से कह देना, मेरा अब उससे कोई संबंध नहीं।

गायक से सारी बात सुनकर मूमल ने तत्काल अमरकोट जाने के लिए रथ तैयार करवाया ताकि वह भ्रम दूर कर सके,
अपना प्रेम पा सके.

अमरकोट में मूमल के आने का संदेश व मिलने का आग्रह पाकर महेन्द्र ने सोचा,
मूमल का इतनी दूर तक चलकर आना, वह भी अकेले,
बस प्रेम में ही संभव है.
कहीं ऐसा तो नहीं कि वह गलत न हो,
मुझे ही कोई गलतफहमी हो गई हो.

उसने मूमल को संदेश भिजवाया कि
वह उससे सुबह मिलने आएगा।
मूमल को इस संदेश से आशा बँधी।

प्रेमातुर मन जितना विश्वासी होता है,
प्रेमाहत मन उतना ही संदेही.
रात को महेंद्र ने सोचा कि देखें,
मूमल मुझसे कितना प्यार करती है़.

परीक्षा लेने के लिए सुबह उसने अपने सेवक को
यह सिखा कर मूमल के पास भेजा कि कहना-
राणा महेंद्र को रात में काले नाग ने डस लिया,
जिससे उनकी मृत्यु हो गयी.

सेवक ने जैसे ही यह बात सुनाई,
मूमल मर्माहत हो धरती पर गिर पड़ी
और उसके प्राण पखेरु उड़ गये.

उधर महेंद्र ने जब मूमल की मृत्यु का समाचार सुना,
वह उसी वक्त पागल हो गया
कहते हैं,
थार के रेगिस्तान में वह बहुत दिनों तक भटकता रहा
और
भटकते हुए ही प्राण त्याग दिये.

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थार के रेगिस्तान में आज भी लोकगीतों में यह प्रेमकथा गायी जाती है- बहुत भाव लिए, बहुत राग लिए.
मूमल वहाँ के लिए सौंदर्य और सरलता की अधिष्ठात्री है,
महेंद्र चूक गया।
उसने प्रेम में संदेह रखा, परीक्षा रखी,
बिना स्वयं पर संदेह किये, बिना स्वयं परीक्षा दिए,
इसलिए वह आदर्श न बन सका.

मूमल का नगर लुद्रवा (प्राचीन रुद्रपुर) कभी जैसलमेर की प्राचीन राजधानी रहा है और अब बस ध्वंसावशेष है.
जैसलमेर नगर से 14 किमी दूर इस नगर में मूमल के महल के अवशेष "मूमल की मेड़ी" के नाम से मौजूद हैं.
अमरकोट अब पाकिस्तान में उमरकोट बन चुका है।

मरुप्रदेश में सुंदर बेटी या बहू को मूमल की उपमा दी जाती है. अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मरु महोत्सव में भी हर साल मिस मूमल सौंदर्य प्रतियोगिता होती है.
वहाँ के लोकगीतों में गाई जाती मांड विधा ने अनजाने में इस गाथा को विश्व तक पहुँचा दिया है।

ढोला-मारू और महेंद्र-मूमल की कहानियों में बहुत कुछ समान है,
मारू और मूमल दोनों मरुभूमि की राजकुमारियाँ हैं,
दोनों ही के नगर आज के प्रसिद्ध शहरों जैसलमेर और बीकानेर की प्राचीन राजधानी रहे हैं,
दोनों का प्रेम दूर देश के राजकुमारों से हुआ,
दोनों में ही प्रेम का प्रारंभ प्रेयसियाँ करती हैं,
दोनों के ही प्रेमी पूर्व विवाहित हैं और उनकी रानियाँ
उनकी प्रेयसियों के पत्र और संदेश उन तक पहुंचने नहीं देतीं.
दोनों का संदेश लोकगायक लेकर जाते हैं, सुनाते हैं,
दोनों की कहानियां मांड की लोकगायन विधा में दुहराई जाती हैं,
दोनों में प्रेमीयुगल में एक के सर्पदंश की कहानी है,
दोनों में प्रेमीयुगल में एक मरने की झूठी कहानी है,
दोनों में नायिकाएँ नायकों से बेहतर सिद्ध होती हैं,
शायद दोनों का घटनाकाल या रचनाकाल भी समान हो,
पर अंतिम नियति सर्वथा भिन्न है,
ढोला-मारू सुखांत परिणति पाते हैं,
मूमल-महेंद्र दु:खांत परिणति.

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