शनिवार, 19 अप्रैल 2014

व्यक्त करती हूँ जब कभी मन के भावों को

व्यक्त करती हूँ जब कभी मन के भावों को
सोचती हूँ जब कभी नित नवीन  विचारों को
कुकृत्य अन्याय अत्याचार गरीबी दरिद्रता
हैवानियत शोषण और न जाने बहुत कुछ
ये सोच जाने क्यों मुझे स्वार्थ जीवन  से दूर
और समाज के करीब लाने में मददगार साबित हुई
और उस वक्त स्वत: लिखने लगती है कलम
मन में उठते हर भावों को कुछ व्यक्त
 तो कुछ भाव अव्यक्त
ये छोटी सी कलम कैसे लिख देती है
 मेरे मन के सुक्ष्म विचारों को
एक आदत मेरी दिल की बातों को
 कागज पर उतारने की
दिल में उठ रहे तूफानों को जो  थम जाते हैं
अन्यथा ये भाव मन में मचा देते हैं कोलाहल
कभी कद्र नहीं किया अपने हुनर की
कहते हैं लोग मुझमें छुपा है  एक ऐसा हुनर
जो तुम्हे बुलंदियों तक पहुंचाएगा
कहती हूँ उनसे जिन्हे फिक्र है मेरी
 मैं कुछ  भी नहीं गर छू लूँ बुलंदियों को
हे विधाता मेरे पैरो को जमीं पर ही रखना
विश्वास नही क्या आज  मैं सचमुच
खुद को अभिव्यक्त कर सकती हूँ ?
यह सोच एक आशा की किरण मेरे मन में
 उमंग पैदा कर देती है
क्या सचमुच मैं अभिव्यक्ति को
छितिज के रूप में देख पाने में सक्षम हूँ??
गायत्री शर्मा

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