गुरुवार, 12 जून 2014

प्रितिविम्व -एक परछाई 4

जब काम न करना हो तो बहाने अपने आप बन ही जाते है और लोग अपने आलस्य या कामचोरी की आदत को छुपाने के लिए उन बहनों का सहा लेते हैं जिनका हकीकत से वास्ता सिर्फ इतना होता है की वो लोग बैसा करना ही नही चाहते थे |मुझे एक वहुत ही मशहूर जोक याद आता है जिसमे एक छात्र अपने फ़ैल होने की वजह बताता है वह कहता है की -
मेरे एग्जाम में फ़ैल होने की कोई वजह नही थी लेकिन मेरे पास कोई वक़्त नही था ..जब उससे पूंछा गया कैसे?
तो उसने बताया  - एक साल में ३६५ दिन होते हैं ,रोज आठ घंटे सोने के यानी पुरे साल के मिला कर १२२ दिन तो इसी में चले गए |यानी मेरे पास बचे हैं ३६५-१२२= २४३ दिन |इसके बाद दिवाली और दसहरा /ईद और समर विएशन के कुल ६१ दिन यानी २४३-६१=१८२ दिन |इसके बाद ५२ सन्डे यानी १८२ -५२ = १३० दिन
अब त्योहारों के चालीस दिन –यानी १३० -४०= ९०
कॉलेज फेस्तिवल के पन्द्रह दिन- ९०-१५=७५ दिन|इसके बाद खाने पीने नहाने के रोज ३ घंटे के हिसाब से हुए ४६ दिन यानी की ७५-४६=२९ दिन |
रोज का एक घनता दोस्तोंन के लिए यानी १५ दिन और गए और दस दिन बीमारी के यानी की कुल मिलाकर उसने खुद को सही साबित कर दिया मगर एक सफलता के लिए प्रयास रत व्यक्ति के लिए तो यही २४ घंटे उसके पास असली घंटे होते हैं वो भी सामान्य जीवन जीता है लेकिन उसके पास बस एक ही कमी होती है की उसके अपनी नाकामी छुपाने के लिए इतने शानदार बहाने नही होते और न ही उसे उनकी जरुरत पड़ती है |
मैं भी उन लोगों की लिस्ट में जुड़ना चाहता था जिनके नाम के आंगे लिखा जाता है की बहाने नही बनाते थे और उन्होंने हार नही मानी .............लेकिन मुझे अभी तक समझ नही आयाकी वो खुद को कैसे मेंटेन रखते थे यानी खुद को अवसाद से ग्रस्त होने से कैसे बचा लेते थे |मैंने रोवेर्ट विलिम पीज की एक पुस्तक में पढ़ा था की एक सफल व्यक्ति हमेशा एक अच्छा विदूषक होता है |इस बात में कितने सच्चाई है इस बारे में मुझे ज्यादा नही मालूम लेकिन अगर ये बात सच है तो पहले मुझे एक बिदूषक बनना होगा क्यूंकि उसके बिना सफल नही ही=उया जा सकता |किसी ने कहा था मुझसे की अपनी जिन्दगी के गम से भले ही तुम जिन्दगी जीने का मजा लेते हो लेकिन जो मजा मुस्कुराने और लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाने में है वो मजा दरअसल किसी भी काम में नही हैं |मैंने उसकी बात को सुना जरुर था मगर अनुसरण नही किया था एक वक़्त तक में लोगों के गम को दूर करने का प्रयास तो करता और उससे मुझे ख़ुशी भी मिलती लेकिन वो ख़ुशी मेरे दिल में भरे हुए गम के अथाह सागर में भावनात्मक रूप लेकर दब जाती |जब किसी के प्यार को उसके पास देखता ..या किसी बच्चे को मुस्कुराते हुए देखता ...बचपन का आनन्द लेते हुए देखता तो मन एक पल के लिए खुश हो जाता मगर अगले ही पल दिमाग में उत्पन्न होता था की काश ये सब मेरे पास भी होता और उसके बाद फिर गम |
मेरी हसी दब जाती थी मेरे आतीत के काले पन्नों की वजह से जिससे अवसाद ने मुझ पर हावी होने का अवसर प्राप्त कर लिया और लगभग मुझ पर कब्ज़ा ही कर लिया ये भी कहा जा सकता था |पिछले दिनों मार्टिन लूथर किंग की जीवनी पढ़ रहा था तो उनके संघर्षों को पढ़कर मन में खुद को योधा बनाने का प्रयास किया लेकिन कहावात है की पढना और सोचना दोनों अलग है और उसका अनुसरण तो सबसे अलग और वो सच भी साबित हो गया |


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