मंगलवार, 3 जून 2014

प्रितिविम्व - एक परछाई

लब्ज रुक रुक कर आ रहे थे ...गला भरा हुआ था .................आँखों में लालिमा आ गयी .....लगने लगा मानो अब नही तो बस अब आँखों से आंशु टपकेंगे .................पर किस लिए  ये मेरा दिल नही समझ प् रहा था .....एक तरफ जहाँ  मन दिल को हल्का करना चाहता था तो दूसरी तरफ दिल वह्लाना .................किसी से बात करने को दिल करा रहा था मगर वो था कौन ये भी समझ नही आ रहा था ..... सब तरफ बस सूनापन ही था ...........वहुत कुछ कहना चाहता था ...वहुत कुछ सुनना चाहता था ..मगर  किस्से कहते किसके कंधे पर सर टिकता .............................दिल की इजाजत नही थी आशु बहाने की क्यूंकि न जाने कहाँ दिली के किस कौने में कहीं न कहीं प्रतिष्ठा धूमिल होनें का डर मन में सता रहा था ..............बार बार खांस रहा था पर न जाने गले में क्या अटका हुआ था जो निकलने का नाम ही नही ले रहा था |मन हल्का करने के लिए सुना है लोग आसू बहा लेते हैं मैं भी बहा लेता मगर वो  किस लिए आखिर ये सब खुद का ही तो किया हुआ था ......मेरे सामने मेरा ही चुना हुआ पथ था ..मेरे खुद का पैदा किया हुआ दर्द जिसे मैं महसूस तो कर रहा था परन्तु व्यक्त नही कर प् रहा था |कल जब हर कोई मेरे बिरोध में खड़ा होकर ....मेरी अवहेलना करने को तैयार था मेरे फैसलों पर रोक लगाने को आतुर था तब मैं सबको ठेंगा दिखा आया था जिसके चलते मुझे अपने आप से दूर होना पड़ा .......................................आज उन सबकी वहुत याद आ रही है ...उनसे बात करने का मन कर रहा है...लेकिन उनसे करूँ तो किस मुंह से करूँ ....हाल कहूँ तो कैसे कहूँ /........मन में एक अनचाहा डर पैदा हो गया................. की पता नही वो मेरा फोन फ्लिक करेंगे भी या नही या फिर बस यूँ ही हम भटकते रहेंगे ....अगर फोन फ्लिक नही किया तो हम क्या करेंगे ??हमारे पास कौन सा कारन होगा जो हमें रोक सकेगा खैर जलते अंगार पर तो हमें ही चलना है क्यूंकि ये पथ हमारा अपना बनाया हुआ है ................शायद सरकारी ठेकेदारों की तरह|मगर हम उनमे से नही थे क्यूंकि वो कभी एषा नही करते हैं उन्हें  अपने बनाये मार्ग पर इतना भरोसा होता है की वो खुद वहां नही जाते और न ही उस मार्ग से आवागमन करते हैं क्यूंकि उन्हें सच पता होता है ....................मेरा बनाया मार्ग मुझे ही चुनौती फैंक रहा था .......मुझे सच तो [पता था अपने चुने हुए पथ का मगर मुझे लगता था की इसके बाद आने बाली हसीं जिन्दगी पर तो सिर्फ मेरा ही कब्ज़ा रहेगा..................मगर ये सिर्फ मुंगेरीलाल की स्वप्नों से कुछ ज्यादा नही था क्यूंकि आप को जो रास्ता जितना सीधा दीखता है वो रास्ता हकीकत में उतना ही टेढ़ा होता है .............|मुझे तो ग़ालिब की पंक्तियों का रहस्य आ समझ आया  जिनमे ग़ालिब कहते हैं की " दिल को बहलाने को 'ग़ालिब' ये ख्याल अच्छा है और आज सच में पाया की हाँ सिर्फ ख्याल ही अच्छा है और कुछ नही हकीकत से इसका कोई वास्ता ही नही है |
रातों को नींद आना बंद हो गया था,मन मयुस मायूस सा रहने लगा था |लोगों की चिंता छीन एक सुखद सुकून देने बाली ये प्रक्रति भी मुझे आराम नही पहुंचा प् रही थी ...घंटो बाग़ बगीचों में बैठने के बाद भी एक पल के लिए भी एषा नही लगता की हाँ अब मैं पहले से वेहतर हालत में हूँ |मेरी हालत का कोई जिम्मेदार नही था बस यही था की मैंने अपने आप पर जरुरत से ज्याद बोझ दाल कर खुद को आज की हालत में पहुंचा दिया था |सरकारी/गैर सरकारी  जमीनों पर बिल्डर उनकी छमता से ज्यादा अपने लाभ को बढाने के लिए कानूनों को तोड करके या उन्हें हाशिये पर धकेल करके अपनी मन मर्जी से लम्बी से लम्बी ईमारत  तान देते हैं और भविष्य के आने बाले भयंकर हालातों से निबटने के उपाय करने के बारें में कुछ भी नही सोचते हैं |एक वक्त के बाद इमारत अपनी औकात पर आ जाती है और अपनी हालत को कोसते हुए जमींदोज होने में जुट जाती है |यहाँ तो में खुद ही जमीं और खुद ही बिल्डर था ,हा ये बात जरुर थी की मैंने कोई नियम नही तोडा था क्यूंकि मानव रूपी मशीन कितना काम करना चाहिए या कितना नही इस बारे में अभी तक तो कोई नियम है ही नही |एक दिहाड़ी मजदूर सुबह घर से निकलकर जो भी रूखा सुखा खाकर जाता है उसी में सारा दिन पसीने से तर-बदर हो एक जानवर की तरह सारा दिन लगा रहने की बाद अपने परिवारटी भरने लायक भोजन कमा ही लेता हैं  उनके पास भी सपने होते हैं ,ख्याव होते हैं लेकिन वो अपने ख्यावों को कैद कर लेते है  और अपनी गुजरबसर आराम से करते जाते हैं मगर हम लोग नये आयाम छूने के लिए नित्य प्रयत्न करते हैं सिर्फ प्रयत्न ही नही बल्कि पूरी तरह से जुट जाते हैं व्यवसाय साधना में |जिस तरह एक भक्त भगवान पर विश्वास करके उसमें ही राम जाता है और आस पास की दुनिया को भूलकर बस भगवान् को पाने के लिए उनकी साधना में जूटा रहता है  ठीक उसी प्रकार हम पुजीपतियों के लिए पूंजी ही  हमारा भगवान् होती है ,हम लोग भी दीन दुनिया को छोड़कर भोग विलासता के सामान एकत्रित करने के लिए सिर्फ और सिर्फ पूंजी को बढ़ने में लगे रहते हैं ..हमारी भावनाएं भी रुपयों की स्वाभाव सी हो जाती हैं और हमारा सारा जीवन बस धनोपार्जन के प्रयास में ही गुजर जाता है | साधू संत रब की साधना करते हैं और हम पूंजी की |
खटर पटर ...ख़ट-पट खट-पट की मशीनों से निकलती आवाजों के बीच काम करने बाले हजारों मजदूर उन्ही के बीच रहकर भी खुद को मशीन बनने से रोक लेते हैं लेकिन हम एसी कमरों में बैठकर कब मशीन बन जाते है पता ही नही चलता है ....हमारी भावनाएं सोच सब बदल जाती है और हम सिर्फ इक मशीन की तरह सोचते हैं ....जो की एक निर्जीव वास्तु होती है न उसकी भावनाएं होती हैं और न ही उसको दर्द का आभास होता है वो सिर्फ तभी रूकती है जब उसका या तो  ईधन ख़त्म हो जाता है या फिर उसका कोई हिस्सा काम करना बंद कर देता ..ठीक इसी तरह हम सब भी लगे रहते है ,जुटे रहते हैं और तभी रुकते हैं जब कुछ हो चूका होता है ............काम की व्यस्तता हमसे इंसान होने का भाव छीन लेती है ....घर परिवार समाज के लिए वक़्त निकालना मुश्किल हो जाता है और एक बड़े आलिशान शीशे बाले गहर में खुद को कैद कर लेते हैं ...|
पुराने ज़माने में शीशे का उपयोग कम होता था क्यूंकि तब लोगों को सुन्दर दिखने बाली चिजो से जयादा मजबूती पसंद थी और उस वक़्त की जेलें भी लोहे की बनी होती थी ..शायद ये लोहे के खांचों बाले प्रथा उसी ज़माने की दें हैं ...............मगर बदलते वक़्त के बाद ऐसे जैसे बदलाव आये हैं मुझे नही लगता की आब कोई शीशे की भी सलाखें तोड़ सकता है क्यूंकि हम उनके अन्दर बसने के लगभग आदि हो चुके हैं|जब इंसान खुद को स्वेक्छिक रूप में कैद करना चाहता हो तो उसे कौन रोक सकता था |


दाऊ जी 

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