रविवार, 21 सितंबर 2014

टूटी हुयी शाख -3

फिर एक दिन अचानक ही वह लौट आईं। सतरंगे रथ पर सवार.. ऐंद्रजालिक सुनहले सपनों की तरह। कभी ताज़ा मुस्कान और भड़काऊ अदा बाँटती, कभी सौम्यता और गंभीरता की प्रतिमूर्ति बनी। कभी-कभी तो नैन-मटक्का और कमर-हुचक्का के हैरतंगेज़ कारनामों के साथ भी। ...इतनी घोर अदर्शनीय - जैसे अलगनी पर सूखते घरेलू कपड़ों के मध्य चोली।चेहरे पर विखरता वाही पुराना नूर मगर एक नई चमक के साथ |अंखियाँ आज भी शरारत भरी मगर लवों पर वाही पुरानी एक पल में दीवाना बनाने बाली मुस्कान |चाल में नाजुकता के साथ साथ नजाकत का भी रुख देखने को मिल रहा था |मगर कुछ भी कहो आज न जाने क्यूँ वो काले कपडे मुझ पर उतना जुल्म नही ध रहे थे जो उसके जाने से पहले ढाया करते थे |
मेरा मन ख़ुशी से उछल तो रहा था लेकिन न जाने क्यूँ दर्द से दिल भरता जा रहा था कहीं न कहीं दिल में कोई न कोई बोझ तो था जो मुझे परेशां कर रहा था |मालूम नही कौन सा दर्द था किस बात का दर्द था लेकिन दर्द जरुर था ...शायद पश्चताप का या फिर उनके खोने का ,और मैंने खोया भी क्या था ?? शायद अपनी जिन्दगी को ???  या फिर अपने आप को सबसे ज्यादा समझने बाले सख्श को ?? या फिर अपने शरीर के उस हिस्से को जिसे जुदा करके कोई नही जी सकता .....आज खुद को ज्यादा असहाय महसूस कर रहा था  क्यूंकि मेरा धडकने बाला दिल अब मेरे अपने पास नही था अब मेरे पास मेरी सिर्फ देह थी और कुछ नही |
मैं खुद को एक ऐशे ब्रक्ष में तब्दील कर चुका था जिसकी सबसे ज्यादा फली फूली और एक मात्र शाखा अब उसके पास नही थी उसके पास था तो सिर्फ तना या कहो डूंड|एक शाखा के टूटने का दर्द भी किसी अंग के जुदा होने जैसा ही होता है ये भी मुझे आज ही समझ आया था | मुझे उसके जाने बाले दिन के बाद\ का बाकया याद आता हैं ..उस दिन क्या हालत थे मेरे सोचता हूँ तो एक रक पल गवाही बन जाता है एक एक द्रश्य भयाभः हो जाता है |
उस दिन मैंने देखा बाहर धूप मैली सी होकर पड़ौस की इमारतों पर रेंग रही थी, जो उससे पहले कभी भी उस रूप में नही देखि गयी थी। उस दिन उसमें चमक ही नहीं थी न जाने एषा क्यूँ लग रहा था की बस ये भी आज बस अपने होने मात्र का अहसास ही करा रही है हकीकत में तो ये दूर जा रही है। इमारतों पर भी अवसन्न सा आलोक फैला था। उदास मन एक गंभीर चुप्पी के साथ अपना रोना रो रहा था |लेकिन दिल तो दो अब अलग अलग हो चुकी साँसों के बीच बिंधा हुआ उसे हमारे अलग होने पर तब भी यकीं नही था।वो एक प्यारी चिड़िया सी थी जिसने मुझे महकना सिखाया था जिसने मेरे आस पास के वातावरन को कीट मुक्त कर दिया था जिसकी वजह से ही मैं पनप पाया था |मगर आज उसका जाना यानी एक चौकीदार का चला जाना था.और एक चौकीदार के जाने के बाद उस घर/पौधे/पुष्प के पास वापस वाही कीट मडराने लगते हैं| हमने अपने वर्षों के साथं से एक सुन्दर महल बनाया था जिसके बिखरने पर मेरा संयम टूटता जा रहा था। वर्षों से उसके साथ रहता आया था आज उसका जाना आयनी सूनापन का आना था और वही हुआ भी सुने पन ने आकर मुझे घेर ही लिया था|
कानपुर का घर मानो मेरे लिए वानप्रस्थ आश्रम बन गया था। एकांत में उनके साथ बिताए पल मन में ढेरों तरह की बातचीत के टुकड़े जो अधूरे शब्द या पूरे वाक्य होते...कभी बनते तो कभी बिगड़ते रहते। वो अन्तिम खुशी जो दोनो ने इकठ्ठी बाँटी थी...वाकई उसको नज़र लग गई थी। अब वे सोचते कि खुशी का रिश्ता उम्र के साथ नहीं बल्कि हालात के साथ होता है। हालात वक्त के साथ-साथ बदलते रहते हैं। लेकिन इतने बदलेंगे ये कभी मैने सोचा भी नही था। अतीत के साथ-साथ घसीटकर जीया नहीं जा सकता इसलिए खुद को सम्हालने के लिए मैंने लोगों के दर्द को मिटाने के लिए और जनसेवा का पुराना मार्ग अपनाते हुए भोपाल जाने का फैसला किया था और तब तक कानपूर से दूर रहने का प्रयास शुरू किया था जब तक उनको पूरी तरह से न भुला दूँ और उनको फिर कभी याद न करूँ ...लेकिन ये होना भी तो असम्भव ही था | उनके बिन भोपाल आना गलत हो गया वहां के हालत तो और भी उनकी याद दिलाने लगे |मुझे नही पता हम उनके बिन कैसे वहाँ रह रहे थे......हमें खुद की हालत पर और फैसले पर रोना आ रहा था|  ...और हमारा भोपाल आने का फैसला भी हास्यास्पद था मुझे अपनी सोच पर स्वंय ही हसी  आ रही थी।
इन “तिलों में तेल नहीं है।”
और यहाँ मेरा इलाज नही है
 यह मुझे अच्छी तरह से समझ आ गया था|किसी तरह दो महीने बिताये गए वहुत सारे काम निपटाते हुए। आखिर हमने फैसला किया की हम अपनी ज़िन्दगी की किताब से इनके नाम के पन्ने फाड़कर हमेशा हमेशा के लिए पुराने दिनों में लौट जायेंगे और न हम उन्हें याद करेंगे और न कभी याद आने देंगे | यह हमारी हताशा की निशानी थी हम हताश हो दोनो की नैय्या को सागर में डोलते देख उसको  ईश्वर के सहारे छोड़कर वापिस कानपूर आ गए। जब हर कोशिश नाकाम हुयी तो मैंने वापस कानपुर का रास्ता अपना लिया था और ये जरुरी भी था |
मगर आज उनके आते ही मुझे अपने आस पास का माहौल बदला बदला नज़र आ रहा था ...कल तक सुखी चलने बाली यही हवा आज वहुत पसंद आ रही थी ...धुप में भी निखर आ गया था ....सारा माहौल भी बदल गया था ....आज फिर वहुत दिनों बाद कवि ह्रदय जाग्रत हो गया और कुछ नये शव्द लिख गए - जाने के बाद आपके,
एक एक पल काटा मुश्किल से,
कोई  नही था पास हमारे,
उस तनहाई में ,सिर्फ आपकी यादों के ||

दाऊ जी 


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