शनिवार, 20 सितंबर 2014

मंदिर अब सुनसान पड़े हैं भीड़ लगी मयखानों में,

मंदिर अब सुनसान पड़े हैं भीड़ लगी मयखानों में,
मर गए बाबा माल मिल रहा है अब भी तहखानो में,

बाबागीरी जोर-शोर पर इसका आदि न अंत कहीं,
कैसे-कैसे हुए चमत्कारी इनकी जमात शैतानो में.

जनता को बहकायें बना के रोज बहाने नए-नए,
सब एमाल करें छुप-छुप के आलीशान मकानो में,



सारे जग में ढोंग रचें कोई क्या समझे माया इनकी,
जब ये असली रंग दिखाते जाकर के शमशानों मे.

बेशक बाबाओं की शक्ति काम नहीं आ रही यहां,
भीड़ लगी है अब भी लेकिन इनकी सजी दुकानों में..

अगर चमत्कारी ही हैं तो कष्ट हरें सब दुनिया के,
क्यों उजाड़ फैलाते हैं अब हरे-भरे बागानों में.

भोग-बिलास मोह माया में डूबे पूरी तरह से हैं,
इनको अक्सर स्वांग रचाते देखा है मैदानों में.

परमब्रह्म की प्रतिमूरत बनकर आते ये लोग यहां,
कैसे मीठी छुरी चलाते हैं अपने व्याख्यानों में.

मुल्ला, पण्डित हो कि पादरी बाबागिरी सब में है,
कौन कहे इनको ये छोड़ के आओ तुम इंसानों में.

सुबह कहीं और रात कहीं भंबरे की तरह घूमते हैं,
कैसे करें यकीन 'अली' इन धरती के भगवानों में.

मयखानों = शराब पीने के स्थान, स्वांग = ढोंग/अभिनय,
प्रतिमूरत = स्वरुप, व्याख्यानों = उपदेश/भाषण


ऐ.एस. खान 

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