शनिवार, 20 सितंबर 2014

तस्बीह का दाना बन जाऊँ,


तस्बीह का दाना बन जाऊँ,
रहमत का निशाना बन जाऊँ।

हर ग़ाम पे सजदे करके चलूँ।
बस तेरा दीवाना बन जाऊँ।

तफ़सीर न हो पाये जिसकी,
अब मैं वो फ़साना बन जाऊँ।

बन्दा-ए-खुदा तो मैं भी हूँ,
फिर कैसे बेगाना बन जाऊँ।

इशरत भी है खौफे-मर्ग भी है,
तो क्यों न दीवाना बन जाऊँ,

पहुँचूँ गिरियाँ दरबारे-नबी,
फ़ैज़ से अंजाना बन जाऊँ?

आमाल न जब बेजा थे मेरे,
फिर क्यों अफ़साना बन जाऊँ।

बरसे की जहाँ बख्शीश 'अली'
बस मैं वो ठिकाना बन जाऊँ।

तस्बीह = जपनेवाली माला, ग़ाम = कदम, तफ़सीर = व्याख्या/विवेचन, फ़साना = चर्चित किस्सा, इशरत = ख़ुशी, खोफे-मर्ग = मृत्यु का भय, गिरियाँ = गिड़गिड़ाना, दरबारे-नबी = हज़रत मुहम्मद का दरबार (मदीना), फ़ैज़ = लाभ/फायदा/प्रसाद, आमाल = कृत्य/कर्म, बेजा = अनुचित/गलत, अफ़साना = लम्बी कहानी, बख्शीश = मोक्ष (ईश्वर द्वारा माफ़ किया जाना)
ऐ.एस.
खान भाई 

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