गुरुवार, 25 सितंबर 2014

हुश्न-ओ-जमाल तेरा ख़ामोश कहता रह गया,

हुश्न-ओ-जमाल तेरा ख़ामोश कहता रह गया,
मैं तहरीर नहीं तेरी सूरत ही पढता रह गया.

जज्बात की तो बात ख्यालों में न आ सकी,
मंज़रे-जलवा तेरा कुछ यूं गुजरता रह गया.

कई थे हुश्न लाजवाव-ओ-बेमिशाल जमाने में,
दिल की लाचारी जो तेरा नाम रटता रह गया.

आना तेरा गुलशन हसीं ख़्वाबों से कम न था,
हर कली चटकी हरेक गुंचा महकता रह गया.

शाखें भी झुक चली थीं खैर-मकदम को तेरे,
कदमबोशी को हर एक गुल बिखरता रह गया.

फिजाओं में जो रंगीनियाँ सब तेरे दम से थीं,
मुश्के-बदन मेहबूब से जर्रा महकता रह गया.

जो तरन्नुम गा रही थी उस घड़ी बागे-शबा,
हरेक इशारा उसका तेरी बात कहता रह गया.

इतना था क्यों तू बेखबर अपने आपसे 'अली'
शोजे-गमे-जनून में जो इतना बहता रह गया.

हुश्न-ओ-जमाल = सुंदरता और चेहरे की चमक, तहरीर = लिखित वयान,
मंज़रे-जलवा = दृश्यावलोकन का क्षण, खैर-मकदम = स्वागत, कदमबोशी = चरण-श्पर्श, फिजाओं = वातावरण, मुश्के-बदन = शरीर की सुगन्ध, तरन्नुम = संगीत लय,
बागे-शबा = बाग़ की हवा, शोजे-गमे-जनून = आंतरिक दुःख का उन्माद


ऐ. एस. अली खान  जी 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अंतर्द्वंद

मेरी सोची हुई हर एक सम्भावना झूटी हो गई, उस पल मन में कई सारी बातें आई। पहली बात, जो मेरे मन में आई, मैंने उसे जाने दिया। शायद उसी वक्त मु...