दूर दुनिया की बंदिशों से हूँ मगर जमीं बराबर से,
मुझे कुछ भी कहे कोई रहूँ बस आदमी बराबर से.
परे हूँ दीन-ओ-मजहब से, परे जाति-ओ-धरम से,
जो आदमी हो मुक़्क़मल खड़ा हो आकर बराबर से,
मैं न दुनिया की ऊँच-नीच पे ईमान लाऊंगा कभी,
जिनको उम्मीद हो मुझसे न वो गुजरें बराबर से.
जमीं भी एक है सबके लिए है आसमां भी एक ही,
फिर क्यों न मिल रहा है फैज़ ये सबको बराबर से.
फर्क कुदरत ने तो रक्खा न कुछ हमको बनाने में,
हमीं दिन रात रहते हैं लगे, ये फर्क लाने बराबर से.
वही कुदरत की नेमत-पाँच हैं तुझमें भी मुझमें भी,
नज़र धोके में रहती है मगर, क्यों करने बराबर से.
कोई दरिया नहीं कहता मुझे, न पी पानी तू मेरा,
मुश्के-गुल भी सभी गुलशन में मिलती बराबर से.
कभी बारिश नहीं हुई जो आई न हो आँगन में मेरे,
हमेशा मेहरो-माह भी रोशन मुझे करते बराबर से.
दरख्ते-जमीं-ओ-अब्रे-आसमां पर्दा नहीं करते कभी,
न मुझसे परहेज करते, देते हैं जब साया बराबर से.
तू अदना आदमी 'अली' मुझको कहता है फिर कैसे,
मैं हिन्दू हूँ मुसलमां तू आकर रहे क्योंकर बराबर से.
बंदिशों = पाबंदियों, दीन-ओ-मजहब = धर्म के विभिन्न रूप, मुक़्क़मल = सम्पूर्ण, फैज़ = लाभ/फायदा, नेमत-पाँच = उपहार-पंचतत्व, दरिया =नदी/नहर, मुश्के-गुल = फूलों की सुगन्ध, मेहरो-माह = सूरज और चन्द्रमा,
दरख्ते-जमीं-ओ-अब्रे-आसमां = पृथ्वी के वृक्ष और आकाश के बादल,
साया = छाया, अदना = साधारण/मामूली
ऐ. एस अली खान जी
मुझे कुछ भी कहे कोई रहूँ बस आदमी बराबर से.
परे हूँ दीन-ओ-मजहब से, परे जाति-ओ-धरम से,
जो आदमी हो मुक़्क़मल खड़ा हो आकर बराबर से,
मैं न दुनिया की ऊँच-नीच पे ईमान लाऊंगा कभी,
जिनको उम्मीद हो मुझसे न वो गुजरें बराबर से.
जमीं भी एक है सबके लिए है आसमां भी एक ही,
फिर क्यों न मिल रहा है फैज़ ये सबको बराबर से.
फर्क कुदरत ने तो रक्खा न कुछ हमको बनाने में,
हमीं दिन रात रहते हैं लगे, ये फर्क लाने बराबर से.
वही कुदरत की नेमत-पाँच हैं तुझमें भी मुझमें भी,
नज़र धोके में रहती है मगर, क्यों करने बराबर से.
कोई दरिया नहीं कहता मुझे, न पी पानी तू मेरा,
मुश्के-गुल भी सभी गुलशन में मिलती बराबर से.
कभी बारिश नहीं हुई जो आई न हो आँगन में मेरे,
हमेशा मेहरो-माह भी रोशन मुझे करते बराबर से.
दरख्ते-जमीं-ओ-अब्रे-आसमां पर्दा नहीं करते कभी,
न मुझसे परहेज करते, देते हैं जब साया बराबर से.
तू अदना आदमी 'अली' मुझको कहता है फिर कैसे,
मैं हिन्दू हूँ मुसलमां तू आकर रहे क्योंकर बराबर से.
बंदिशों = पाबंदियों, दीन-ओ-मजहब = धर्म के विभिन्न रूप, मुक़्क़मल = सम्पूर्ण, फैज़ = लाभ/फायदा, नेमत-पाँच = उपहार-पंचतत्व, दरिया =नदी/नहर, मुश्के-गुल = फूलों की सुगन्ध, मेहरो-माह = सूरज और चन्द्रमा,
दरख्ते-जमीं-ओ-अब्रे-आसमां = पृथ्वी के वृक्ष और आकाश के बादल,
साया = छाया, अदना = साधारण/मामूली
ऐ. एस अली खान जी
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