गुरुवार, 25 सितंबर 2014

दूर दुनिया की बंदिशों से हूँ मगर जमीं बराबर से,

दूर दुनिया की बंदिशों से हूँ मगर जमीं बराबर से,
मुझे कुछ भी कहे कोई रहूँ बस आदमी बराबर से.

परे हूँ दीन-ओ-मजहब से, परे जाति-ओ-धरम से,
जो आदमी हो मुक़्क़मल खड़ा हो आकर बराबर से,

मैं न दुनिया की ऊँच-नीच पे ईमान लाऊंगा कभी,
जिनको उम्मीद हो मुझसे न वो गुजरें बराबर से.

जमीं भी एक है सबके लिए है आसमां भी एक ही,
फिर क्यों न मिल रहा है फैज़ ये सबको बराबर से.

फर्क कुदरत ने तो रक्खा न कुछ हमको बनाने में,
हमीं दिन रात रहते हैं लगे, ये फर्क लाने बराबर से.

वही कुदरत की नेमत-पाँच हैं तुझमें भी मुझमें भी,
नज़र धोके में रहती है मगर, क्यों करने बराबर से.

कोई दरिया नहीं कहता मुझे, न पी पानी तू मेरा,
मुश्के-गुल भी सभी गुलशन में मिलती बराबर से.

कभी बारिश नहीं हुई जो आई न हो आँगन में मेरे,
हमेशा मेहरो-माह भी रोशन मुझे करते बराबर से.

दरख्ते-जमीं-ओ-अब्रे-आसमां पर्दा नहीं करते कभी,
न मुझसे परहेज करते, देते हैं जब साया बराबर से.

तू अदना आदमी 'अली' मुझको कहता है फिर कैसे,
मैं हिन्दू हूँ मुसलमां तू आकर रहे क्योंकर बराबर से.

बंदिशों = पाबंदियों, दीन-ओ-मजहब = धर्म के विभिन्न रूप, मुक़्क़मल = सम्पूर्ण, फैज़ = लाभ/फायदा, नेमत-पाँच = उपहार-पंचतत्व, दरिया =नदी/नहर, मुश्के-गुल = फूलों की सुगन्ध, मेहरो-माह = सूरज और चन्द्रमा,
दरख्ते-जमीं-ओ-अब्रे-आसमां = पृथ्वी के वृक्ष और आकाश के बादल,
साया = छाया, अदना = साधारण/मामूली


ऐ. एस अली खान जी 

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