गुरुवार, 18 सितंबर 2014

सुनलें जो सदा-ए-दर्द

सुनलें जो सदा-ए-दर्दकहाँ नाम बहुत से होते हैं,
मिलने को यूं जमाने में पैगाम बहुत से होते हैं।
आएंगी सदा वीरानों से मंजर न नुमाया होगा,
जुल्मत भरी राहों में गुमनाम बहुत से होते हैं।
तुम कुछ न कहो वो समझेंगे नज़रों की जुबां,
मंजिले-उल्फत में भी हमनाम बहुत से होते हैं।
हैं राहें संगो-खार भरी, सफर नहीं आसां होगा,
सच पे चलनेवालों को इल्जाम बहुत से होते हैं।
नुक्श नुमाया जो हैं अपनों का करम रहा होगा,
बरना इस दुनिया में, बदनाम बहुत से होते हैं।
एक सिर्फ मुहब्बत ही क्यों रुसबा हुई जाती है,
हैं और मुन्तजिर जो, सरेआम बहुत से होते हैं।
किसकी मिट पाती है तश्ना आकर इस दुनिया में,
होने को तो दुनिया में तश्नाकाम बहुत से होते हैं.
बे-रंगो-नूर-जहां सारा, आलम है गरजपरस्ती का,
इसमें भी तो अल्लाह के अहकाम बहुत से होते हैं.
हासिल हुआ न कुछ हमको चरचे हैं जहां भर में,
होने को 'अली' अब भी यूं, सलाम बहुत से होते हैं।
सदा-ए-दर्द = कराह/कष्ट ध्वनि, नुमाया = दिखना, जुल्मत = अँधेरा, संगो-खार = पत्थर और कांटे/कष्टदायक, मुन्तजिर = जिसका इन्तजार हो, तश्ना = प्यास, तश्नाकाम = प्यासा, बे-रंगो-नूर-जहां = उजड़ी हुई दुनिया/बेरौनक, अहकाम = ईश्वरीय आदेsh
खान भाई

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