गुरुवार, 18 सितंबर 2014

हाले-हयात-खस्ता मेरा, कैसे कहूँ शेर में,

हाले-हयात-खस्ता मेरा, कैसे कहूँ शेर में,
कल घर था जो बदला है मलबे के ढेर में.


दिल की बातें अब कहाँ रास आएंगी हमें,
बहुत ऊपर उठ चुके हैं हम रोटी के फेर में.

चंद लम्हों का नज़ारा था हसीं जलवा तेरा,
फिर जुल्मतों का साया मिला चल के देर में.

कुछ दिखाई भी न देता, हैं फकत परछाइयाँ,
आएंगे सब ऐसे नज़र, इन दायरों के घेर में,

हैं कहाँ अहलो-अयाल और कहाँ बजूद मेरा,
चंद परछाईं डरा जाती है थोड़ी आ के देर में.

मुल्क ये जन्नत-नुमां यूं तबाह हो जाएगा,
कैसे मैं लाऊँ यकीं, हूँ अब इसी के फेर में.

ना उठा रक्खी कमी जांबाजे-मुल्क ने कोई ?
कैसे मगर वो जिंदगी लाएंगे कूड़े के ढेर में.

दिल हुआ ज़ख्मी तेरा क्या लिखेगा तू 'अली'
पुख्तगी आएगी कैसे? ऐसे जबर-ओ-ज़ेर में.

हाले-हयात-खस्ता = जीवन का कमजोर होना, जुल्मतों = अंधेरों, अहलो-अयाल = परिवारीजन (पत्नी और बच्चे),
जन्नत-नुमां = स्वर्ग के समान,
जांबाजे-मुल्क = सैनिक (देश के लिए लड़नेवाले),
पुख्तगी = मजबूती, जबर-ओ-ज़ेर = ऊंचा और नीँचा (असमानता)


खान भाई 

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