सोमवार, 29 सितंबर 2014

है आज भी दिल कितना पशेमान तेरे वग़ैर।

है आज भी दिल कितना पशेमान तेरे वग़ैर।
सब बे-बजूद हैं ये जान-ओ-जहान तेरे वग़ैर।

हर शख्स पहुचता है यूं तो अंजाम पे अपने,
देता मगर कितने और इम्तिहान तेरे वग़ैर।

मुश्के-गुल-ए-चमन में लगती न थी कशिश,
फीके रहे लज्जत-ओ-रंगे-ज़ाफ़रान तेरे वग़ैर।

तन्हाई में रहने का अक्सर चढा शौक था हमें,
दे ना सका तश्कीन भी शबिस्तान तेरे वग़ैर।

हज़ारों ख्वाब आँखों में लिए बारहा फिरते रहे,
मिटती न क्यों तिश्नगी-ए-विज्दान तेरे वग़ैर।

तेरी शान में कशीदे तो मैं पढ़ता रहा उम्र भर,
लेकिन न बना अब तक कोई दीवान तेरे वग़ैर।

अपने हमराह रास्तों की मैंने ख़ाक भी छानी,
हासिल मगर न था कोई भी निशान तेरे वग़ैर।

सब देखते मुझको रहते हिमाकत-ओ-रश्क से,
दुनियाँ में जैसे हो चला मैं अनजान तेरे वग़ैर।

सब कुछ मेरा लुट सा गया था मैं हैरानो-परेशाँ,
उजड़े से लगते थे जमीनो-आसमान तेरे वग़ैर।

दर-दर की खाने ठोकरें हुआ मजबूर इस कदर,
खोई 'अली' की जैसे थी अब पहचान तेरे वग़ैर।

पशेमान = लज्जित, मुश्के-गुल-ए-चमन = बाग़ के फूलों की सुघन्ध,
लज्जत-ओ-रंगे-ज़ाफ़रान = केसर का स्वाद और रंग, तश्कीन = सन्तुष्टि, शबिस्तान = सोने की एकांत जगह, तिश्नगी-ए-विज्दान = आत्मा की प्यास, हिमाकत-ओ-रश्क = हीनता और चिढ़,

a s khan ji 

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