गुरुवार, 25 सितंबर 2014

उदासी इस कदर हुश्न पे गुलफाम हुई जाती है,

उदासी इस कदर हुश्न पे गुलफाम हुई जाती है,
कोशिश छुपाने की जिसे नाकाम हुई जाती है.

रोता रहा सदियों से ज़माना जफ़ा-ए-मेहबूब,
अब तो वफ़ा भी उनकी बदनाम हुई जाती है.

शमा करदे जो उजाला तो हो जाती है रुसबा,
ये तिश्नगी-ए-परवाना क्यों आम हुई जाती है.

छुपाके दर्द भी सीने में जमीं खामोश रहती है,
इल्म है उसकी मुहब्बत गुमनाम हुई जाती है.

गौर से गर सुने कभी पाएंगे रोता है आसमान,
हर सदा उसकी अल्लाह का अहकाम हुई जाती है.

नहीं मंजिल मुहब्बत की कोई ये रास्ता है फकत,
चलते-चलते जो खुद-व्-खुद अन्जाम हुई जाती है.

आना-जाना निज़ामे-कुदरत जमाने की हर शै का,
है खुशफहमी तेरी इन्सां जो ये मकाम हुई जाती है.

नेमते-कुदरत है जज्बा जिससे रोशन है दिल तेरा,
है बर्क़-ए-नूर जो ये कायनात तेरे नाम हुई जाती है.

मुहब्बत ज़ख्म देती है तो फिर शिकबा कोई कैसा,
तेरी तो बेरुखी भी अब 'अली' सरेआम हुई जाती है.

गुलफाम = खिलता हुआ/चमकदार/फूल सा चेहरा, जफ़ा-ए-मेहबूब = प्रेमिका का विमुख होना, तिश्नगी-ए-परवाना = परवाने की प्यास, सदा = आवाज़/ध्वनि, अहकाम = आदेश/हुक्म ( ये शब्द केवल ईश्वरीय आदेश के लिए ही प्रयोग होता है ),
निज़ामे-कुदरत = प्रकृति का नियम, खुशफहमी = स्व-प्रसन्नता, मकाम = नियमित ठिकाना, नेमते-कुदरत = प्रकृति का उपहार, बर्क़-ए-नूर = ईश्वरीय प्रकाश की चमक,
बेरुखी = लापरवाही/ध्यान न देना, सरेआम = उजागर/सबके सामने आना


ऐ. एस खान जी 

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