अब कैसे कोई ऐसी दुनिया में सकून पायें,
तुम अपनी राह जाओ हम देखते रह जाएँ।
रहनुमा-ए-तब्दीलिये-तस्ब्बीरे-मुल्क कहो,
हम भी तो हैं वतन में फिर और कहाँ जाएँ।
ये दौरे-इंकलाब भी अब फिर से आगया है,
सुनलो वतन-फ़रोशों कोई बीच में न आएं.
भटका दिया हमको मंजिल से जालिमों ने,
गुमराह कर चुके हैं न अब और बरगलाये।
जब मंडली ही चोरों की कुर्सी पे चढ़ गई हो,
आबरू-ए-वतन इनके हाथों कैसे हम बचाएं।
अब इससे जियादा भी कुछ और बात होगी,
पढ़ने की बात आये और जाहिल हमें पढ़ाएं।
जज्बा हम भी रखते मर मिटने का वतन पे,
रोटी से मिले फुर्सत तो नगमा-ए-वतन गायें।
सौंपी है जिन्हें इज़्ज़त हमने वतन की अपने,
मदहोश शराबों में वो हम आब तक न पाएं।
गया दौर सदाओं का चीखों का सिलसिला है,
सुनते नहीं 'अली जब तो क्यों हम चिल्लाएं।
रहनुमा-ए-तब्दीलिये-तस्ब्बीरे-मुल्क = देश का चित्र बदलनेवाले मार्गदर्शक (नेता), वतन-फ़रोशों = देश बेचनेवाले/गद्दार, आबरू-ए-वतन = देश का सम्मान, जाहिल = अशिक्षित/अल्पज्ञानी, आब = पानी, सदाओं = आवाजों।
ए . एस . खान जी
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