आया जहां के सामने कितना बेबाक था.
इतना लिखा था साफ़ ये मेरा औराक था.
यूं बेसबब घिसता न जबीं तेरे दर पे मैं,
सच कहूँ तो वो मेरा मजा-ए-तबाफ था.
निकला तेरे कूंचे से जो मायूस-ओ-परेशां,
समझेगा कौन उसको लज्जते-बफात था.
नज़रों में फकत दीद का पुरनूर तसब्बुर,
ये आइना-ए-दिल इस कदर शफ्फ़ाफ़ था.
फूला न समाया तेरा मायूस सा आशिक,
मिलने से पेश्तर तेरे जो जर्रा-ए-ख़ाक़ था.
कुछ बेखुदी में तय किया सफर-ए-हयात,
हैरान सा पंहुचा जहाँ वो अर्शे-ए-पाक़ था.
दुनिया अलग थी वो, थे नज़ारे सभी जुदा,
देखा न था मंजर कभी जो इतना पाक था.
क्यों हो गया मशहूर इतना बेबजह 'अली'?
आना तेरी महफ़िल में महज़ इत्तिफ़ाक़ था.
ए. एस. खान
औराक = किताब का पन्ना, जबीं = माँथा, मजा-ए-तवाफ़ = परिक्रमा का आनंद, लज्जते-बफात = मृत्यु का स्वाद, दीद = दर्शन, पुरनूर = चमकदार, तसब्बुर = कल्पना/स्वप्न, शफ्फ़ाफ़ = स्वच्छ, जर्रा-ए-ख़ाक़ = धुल का कण/तुच्छ, सफर-ए-हयात = जीवन का सफर, अर्शे-ए-पाक़ = पवित्र स्थान/आसमान, महज़ = केवल, इत्तिफ़ाक़ = संयोग।
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