सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

अभी उस राह पे हमसफ़र देखता हूँ,

अभी उस राह पे हमसफ़र देखता हूँ,
तो शिकबा है मैं सुख़नवर देखता हूँ
है जुल्मत की दौलत हिस्से में मेरे,
क्यों मैं फ़लक़-ए-अख़्तर देखता हूँ.
कभी बंदिशों में न रह पातीं हैं रूहें,
है आज़ाद अब वो पैकर देखता हूँ.
परदा कफ़न मगर नूरे-मुनक़्क़श,
फिर भी सिबा-मुनब्बर देखता हूँ.
मुश्किले-जहन्नुम ज़ियादा न होगी,
जो इस जिंदगी का कहर देखता हूँ.
नहीं आती है उम्मीद कोई नज़र में,
मैं घबराके इधर-ओ-उधर देखता हूँ.
शोखी नज़र आ रही मुझको उनकी,
जिन नज़रों में मीठा जहर देखता हूँ,
मुझे खुद से फुरसत मिली ही नहीं,
वो कहते हैं मैं बद-नज़र देखता हूँ.
मेरी बात पर गौर करना 'अली' तू,
मैं यूं ही नहीं चश्म-ए-तर देखता हूँ.

हमसफ़र = सफर का साथी, सुख़नवर = शायर, जुल्मत = अँधेरा, फ़लक़-ए-अख़्तर = तारों भरा आकाश, पैकर - शरीर/साँचा नूरे-मुनक़्क़श = नक़्क़ाशी की चमक, सिबा-मुनब्बर = ज्यादा चमकदार, शोखी = शरारत/चंचलता, बद-नज़र = कुदृष्टि/बुरी नज़र से, चश्म-ए-तर = अश्रू-पूरित नयन/भीगी आँखें,
A.S. KHAN 

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