चूल्हा गरीब का क्यों दिन-रात सिसकता है,
धूंआं भी थरथरा के बाहर को निकलता है.
धूंआं भी थरथरा के बाहर को निकलता है.
सूनी सी निगाहों से जब उम्मीद गुजरती है,
सीने से भी आतिश का तूफ़ान गुजरता है.
सीने से भी आतिश का तूफ़ान गुजरता है.
भूख वो शै रही जमाने में न मिट सकी जो,
मिटने को दुनिया का हर लमहा गुजरता है.
मिटने को दुनिया का हर लमहा गुजरता है.
पेट की आग से धधकता कमजोर सा दिल,
बुझाने इसको यहां कुछ भी कर गुजरता है.
बुझाने इसको यहां कुछ भी कर गुजरता है.
कोई पैदा नहीं होता मजलूम-ओ-सितमगर,
इसी आग की खातिर, शबो-रोज उबलता है.
इसी आग की खातिर, शबो-रोज उबलता है.
बस यही फ़िक्र खा जाती है इंसान को सच्चे,
बरना तो रोज रात ढलती है दिन निकलता है.
बरना तो रोज रात ढलती है दिन निकलता है.
रोटी तेरा सिरा न कभी हासिल है किसी को,
सारी उमर ये आदमी कितने तवाफ करता है.
सारी उमर ये आदमी कितने तवाफ करता है.
क्या और कुछ कहूँगा तुझे ऐ! हसीं-कायनात,
ज़िंदा जो हूँ भूख से मेरा भी दम निकलता है.
ज़िंदा जो हूँ भूख से मेरा भी दम निकलता है.
चंद लोगों की देखी शख्सियत हैरान था 'अली'
है कैसा पेट ये जो आदमी से आगे निकलता है.
है कैसा पेट ये जो आदमी से आगे निकलता है.
आतिश = अग्नि, मजलूम-ओ-सितमगर = सताया हुआ और सतानेवाला, शबो-रोज = रात और दिन, तवाफ = परिक्रमा (गोल घूमना), हसीं-कायनात = सुन्दर संसार, शख्सियत = व्यक्तित्व।
A.S.KHAN
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