शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

इस शामे-जिंदगी को यादों में बसा लें हम,

इस शामे-जिंदगी को यादों में बसा लें हम,
भूल के दुनिया इसे नज़रों में छुपा लें हम.

सारे हसीन लमहे नज़रों में आये फिर से,
नेमते-कुदरत फिर एक बार से पा लें हम.

खामोश से दरिया में कस्ती की शोखियां,
ऐसे हसीन मंजर ख्वाबों में सजा लें हम.

है साथ आसमां इस बस्ल-ए-शाम अपना,
क्यों न गवाह अपना इसको बना लें हम.

नज़रें मिलाके ऐसे गुमसुम कहीं खो जाएँ,
कुछ लमहे मुहब्बत के ऐसे भी चुरा लें हम.

सरसब्ज़ नज़ारा है कुदरत की रहमतों से.
आलम-ए-हसीं-मंजर सीनों में बसा लें हम.

ये ही फकत जलवा अब हमको नज़र आये,
दोनों ही जिस्म अपने एक जान बना लें हम.

ख्वाहिश न कोई मय की जब साथ रहे दोनों,
उफ़्फ़त भरी नज़रों को पैमाना बना ले हम.

कुछ नगमे मुहब्बत के हम संग गुनगुनायें,
तरन्नुम से फ़िज़ाओं को पुरनूर बना लें हम.

अब शामें-खुशनुमा भी मुस्काके ढल रही है,
शब आ रही उल्फत की तो जश्न मना लें हम.

आजाये इस आलम में पैगामे-क़ज़ा भी गर,
कोई गम नहीं उसे हंसकर गले लगा ले हम.

इतना हसीन मंजर हो हासिले-हयात अगर,
हाजत न 'अली' कोई जन्नत भी भुला दें हम.

शोखियां = चंचलता, बस्ल-ए-शाम = मिलन की संध्या, सरसब्ज़ = हरभरा, आलम-ए-हसीं-मंजर = नयनाभिराम दृश्य के क्षण, तरन्नुम = संगीत/लय, पैगामे-क़ज़ा = मृत्यु का बुलाबा, हासिले-हयात = जीवन में उपलब्ध, हाजत = इच्छा।

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