शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

पत्थर नहीं फिर भी रास्ते में पड़ा हूँ,


पत्थर नहीं फिर भी रास्ते में पड़ा हूँ,
बस किसी जोहरी के हत्थे न चढ़ा हूँ.

सूनी नज़रों में पुर-उम्मीद ख्वाब हैं,
तलाशे-मंजिल में ही राहों में खड़ा हूँ.

मिल गए रहनुमा सफर में जिनको,
वो पा गए मकाम मैं अब भी खड़ा हूँ.

है इल्मे-जनूने-दिल हुनर चमकेगा,
फितरत से अपनी मैं भी जिद्दी बड़ा हूँ.

मुहाज़िर मुझको समझते है बज़्म में,
सुखनबर ना सही ज़रीफ़ो से बड़ा हूँ.

बस इतनी बात पे कहा काफ़िर मुझे,
परेशां हाल जो दरे-बुतकदां पे खड़ा हूँ,

इसरतो-मसर्रत का शिकबा नहीं कोई,
बेबजह जो लगी उस तोहमत से लड़ा हूँ.

सदफ करता नहीं कीमत बयां अपनी,
बस नूर है उसका जो नज़रों में चढ़ा है.

नहीं मंजूर है मुझे ख़ामोशी तेरी 'अली'
इसी वायस तेरी ला-ओ-नहम में जड़ा हूँ.

पुर-उम्मीद = आशा से परिपूर्ण, रहनुमा = मार्गदर्शक, इल्मे-जनूने-दिल = दिल के उन्माद का ज्ञान होना, फितरत = स्वाभाव, मुहाज़िर = शरणार्थी, बज़्म = सभा/महफ़िल, सुखनबर = शायर/कवि ज़रीफ़ = चुटकुलेबाज़, दरे-बुतकदां = मंदिर का दरवाजा, इसरतो-मसर्रत = ख़ुशी और सुख, सदफ = मोती, ला-ओ-नहम = नहीं और हाँ,

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