लौटना चाहता हूँ तेरे आँचल की परछाईयोँ मेँ
अठखेलियाँ चाहता हूँ बचपन की तरुणाइयोँ मेँ
कहीँ छूट गया वो चूल्हे पर बनी दाल का स्वाद
भात जो अपने हाथोँ खिलाती थी तू,है मुझे याद
गोबर लिपटे हाथोँ संग प्यार महका करता था
तेरी मुस्कराहोँ के मुताबिक मैँ चहका करता था
एक अदद हसीँ चाहता हूँ चेहरे की झाईयोँ मेँ
लौटना चाहता हूँ . . . .
मोटा वेतन कम पड़ने लगा, आज के दौर मेँ
जाने कैसे बचाती थी उस एक बीघा ठौर मेँ
एक दिन मांगे तो, चार पैसे मेरे हाथोँ रख दिए
भूखा मत रहना बेटा,हिदायत दी मेले के लिए
समझना चाहता हूँ अर्थशास्त्र, उन चौपाईयोँ मेँ
लौटना चाहता हूँ . . . .
गर्मी मेँ हाथ से पंखा झलना
छोटे कदमोँ के साथ चलना
फटे कपड़ोँ मेँ तन छिपाना
पूछने पर पेट भरा बताना
हर साल मेरे लिए नई पेंट
पर खुद की साड़ी पता नहीँ
छत टपकती तो अपना साया करती
नीदं कैसी आयी बेटे? पूछा करती
डूबना चाहता हूँ तेरी रहमतोँ की गहराईयोँ मेँ
लौटना चाहता हूँ . . . . .
Authorship
-Pradeep Dixit
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