गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

मायूस थके से चेहरे, हैं डूबी हुई निगाहें,

मायूस थके से चेहरे, हैं डूबी हुई निगाहें,
लकड़ी की तरह टाँगे सूखी सी हुई बाहें।

ढांचे पे खाल लिपटी ये हाल बयां करती,
अब पूछ ही रहे हो तो कैसे हम छुपाएं।

दुनिया से थक के चूर मजे से बहुत दूर,
तब ही तो साहब जी मजदूर हम कहाएं।

हम जिनको देखते हसरत भरी नज़र से,
बदले में मगर नज़रे-हिकारत ही पायें।

बाकी नहीं लहू कोशिश मगर है उनकी,
जो भी बचा हमारा वो खून भी पी जाएँ।

मजदूरी मांगते तो गोया भीख मांगते हैं,
दिनभर खटे हैं खुद फिर भी गिड़गिड़ाएं।

भूखा यहां मजदूर है, भूखा किसान है तो,
कोशिश न कारगर कि भारत महान पाएं।

है जिस्म अपने सूखे बस हड्डियां हैं बाकी,
झुकते नहीं मगर हैं, बेशक ये टूट जाएँ।

कमजोर आदमी 'अली' इन्साफ कहाँ पाएं,
मारोगे तुम सता के या ख़ुदकुशी कर जाएँ।

हसरत = आशा, नज़रे-हिकारत = हीनता की दृष्टि।

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